ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 71/ मन्त्र 7
ऋषिः - सुदीतिपुरुमीळहौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उ॒रु॒ष्या णो॒ मा परा॑ दा अघाय॒ते जा॑तवेदः । दु॒रा॒ध्ये॒३॒॑ मर्ता॑य ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒रु॒ष्य । नः॒ । मा । परा॑ । दाः॒ । अ॒घ॒ऽय॒ते । ज॒त॒ऽवे॒दः॒ । दुः॒ऽआ॒ध्ये॑ । मर्ता॑य ॥
स्वर रहित मन्त्र
उरुष्या णो मा परा दा अघायते जातवेदः । दुराध्ये३ मर्ताय ॥
स्वर रहित पद पाठउरुष्य । नः । मा । परा । दाः । अघऽयते । जतऽवेदः । दुःऽआध्ये । मर्ताय ॥ ८.७१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 71; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
All pervasive, omniscient Agni, protect us and leave us not to the sinner, the criminal, and the man of evil thought and action.
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी इतरांचे अशुभ करण्यात वेळ घालविता कामा नये व अनिष्ट चिंतन करून आपले मन दूषित करता कामा नये अन्यथा महान हानी होईल ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे ईश ! नोऽस्मान् । उरुष्य=पालय । हे जातवेदः=सर्वज्ञ ! अघायते=योऽघं पापं करोति तस्मै । मा+परा+दाः=समर्पय । पुनः । दुराध्ये=दुष्टमनसे कपटिने मर्ताय च न परादाः ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे ईश ! (नः) हमारी (उरुष्य) रक्षा कर और (जातवेदः) हे सर्वज्ञ सर्वसम्पत्ते ! (अघायते) जो सदा पाप किया करता है और दूसरों की अनिष्ट चिन्ता में रहता है, ऐसे पुरुष के निकट (मा+परा+दाः) हमको मत ले जा । तथा (दुराध्ये) जिसकी बुद्धि परद्रोह के कारण विकृत हो गई है, जो दूसरों के अमङ्गल का ही ध्यान करता है, (मर्ताय) ऐसे पापिष्ठ के निकट भी हमको मत ले जा ॥७ ॥
भावार्थ
मनुष्य को उचित है कि अपनी ही जाति के अशुभ करने में न लगा रहे और सदा अनिष्टचिन्तन से अपने मन को दूषित न करे, अन्यथा महती हानि होगी ॥७ ॥
विषय
उस के आवश्यक गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( जातवेदः) ऐश्वर्यवन् ! तू ( नः ) हमें (दुराध्ये मर्त्ताय ) दुष्ट चिन्तक मनुष्य के और ( अघायते ) पापकारी, हिंसक के हाथों ( मा परा दाः ) मत दे, उसके हितार्थ हमें मत त्याग।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ७ विराड् गायत्री। २, ६, ८, ९ निचृद् गायत्री। ३, ५ गायत्री। १०, १०, १३ निचृद् बृहती। १४ विराड् बृहती। १२ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ बृहती॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'अघायते दुराध्ये' मा परादाः
पदार्थ
[१] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ व सर्वधन प्रभो! आप (नः) = हमें (उरुष्य) = रक्षित करिये। [२] आप हमें (अघायते) = पाप की इच्छावाले (दुराध्ये) = दुष्ट ध्यानवाले-दुर्विचिन्तक मर्ताय पुरुष के लिए (मा परादाः) = मत दे डालिये। ऐसे पुरुषों के वश में हमें न करिये।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की उपासना से इस जीवन संग्राम में हम दुष्ट विचारों से बचें तथा दुष्ट विचारवालों के वशीभूत भी न हो जायें।
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