ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 71/ मन्त्र 9
ऋषिः - सुदीतिपुरुमीळहौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
स नो॒ वस्व॒ उप॑ मा॒स्यूर्जो॑ नपा॒न्माहि॑नस्य । सखे॑ वसो जरि॒तृभ्य॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । वस्वः॑ । उप॑ । मा॒सि॒ । ऊर्जः॑ । नपा॑त् । माहि॑नस्य । सखे॑ । व॒सो॒ इति॑ । ज॒रि॒तृऽभ्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो वस्व उप मास्यूर्जो नपान्माहिनस्य । सखे वसो जरितृभ्य: ॥
स्वर रहित पद पाठसः । नः । वस्वः । उप । मासि । ऊर्जः । नपात् । माहिनस्य । सखे । वसो इति । जरितृऽभ्यः ॥ ८.७१.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 71; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, creator and treasure home of the world, infinite energy, giver of peace and settlement, universal friend, give us wealth as well as honour and glory for the celebrants.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर बलदाता, सखा व निवासदाता आहे. हे माणसांनो! याचा तुम्ही अनुभव घ्या, विचार करा. जर त्याच्या आज्ञेप्रमाणे वागाल तर तो आम्ही स्तुतिपाठकांना जसे विविध दान देतो, महत्त्व देतो तसे तुम्हालाही देईल. ॥९॥
संस्कृत (1)
विषयः
अनया कृतज्ञतां प्रकाशयति ।
पदार्थः
हे ऊर्जोनपात्=ऊर्जः=बलस्य न पातयतीति । हे बलप्रद हे सखे ! हे वसो=वासक ईश ! स त्वम् । नोऽस्मभ्यं जरितृभ्यः स्तुतिपाठकेभ्यः । वस्वः=धनम् । माहिनस्य=महत्त्वं च । उपमासि=प्रयच्छसि समीपे ॥९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
इस ऋचा से कृतज्ञता का प्रकाश करते हैं ।
पदार्थ
(ऊर्जः) हे महाशक्तियों का (नपात्) प्रदाता (सखे) हे प्राणियों का मित्रवत् हितकारी (वसो) वास देनेवाला जगदीश ! (सः) वह तू (नः+जरितृभ्यः) हम स्तुतिपाठकों को (वस्वः) प्रशंसनीय सम्पत्तियाँ और (माहिनस्य) महत्त्व दोनों देता है ॥९ ॥
भावार्थ
ईश्वर बलदा, सखा और वासदाता है । हे मनुष्यों ! इसका तुम अनुभव और विचार करो । वह जैसे हमको विविध दान और महत्त्व दे रहा है, वैसे तुमको भी देगा, यदि उसकी आज्ञा पर चलो ॥९ ॥
विषय
उस के आवश्यक गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( ऊर्जः नपात् ) बल को नष्ट न होने देने वाले ! हे (वसो) प्रजा को बसाने हारे ! न्यायकारिन् ! हे ( सखे ) स्नेहकारिन् ! मित्र ! तू ( नः ) हममें से ( जरितृभ्यः ) उत्तम स्तुतिशील विद्वान् जनों को ( माहिनस्य वस्वः उपमासि ) उत्तम धन, ज्ञान प्रदान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ७ विराड् गायत्री। २, ६, ८, ९ निचृद् गायत्री। ३, ५ गायत्री। १०, १०, १३ निचृद् बृहती। १४ विराड् बृहती। १२ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ बृहती॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'माहिनस्य वस्वः' उपमासि
पदार्थ
[१] हे (ऊर्जा नपात्) = शक्ति को न गिरने देनेवाले प्रभो ! (सः) = वे आप (नः) = हमारे लिए (माहिनस्य) = महत्त्वपूर्ण - हमारे जीवन को महनीय बनानेवाले (वस्वः) = धन को (उपमासि) = समीप निमत करते हैं अर्थात् प्राप्त कराते हैं। [२] हे (सखे) = मित्र (वसो) = सबको बसानेवाले प्रभो ! (जरितृभ्यः) = स्तोताओं के लिए आप धन को प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु स्तोता को महनीय धन प्राप्त कराते हैं, वह धन जो उसे शक्ति से भ्रष्ट नहीं होने देता ।
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