ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 71/ मन्त्र 5
ऋषिः - सुदीतिपुरुमीळहौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
यं त्वं वि॑प्र मे॒धसा॑ता॒वग्ने॑ हि॒नोषि॒ धना॑य । स तवो॒ती गोषु॒ गन्ता॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । त्वम् । वि॒प्र॒ । मे॒धऽसा॑तौ । अग्ने॑ । हि॒नोषि॑ । धना॑य । सः । तव॑ । ऊ॒ती । गोषु॑ । गन्ता॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं त्वं विप्र मेधसातावग्ने हिनोषि धनाय । स तवोती गोषु गन्ता ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । त्वम् । विप्र । मेधऽसातौ । अग्ने । हिनोषि । धनाय । सः । तव । ऊती । गोषु । गन्ता ॥ ८.७१.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 71; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O vibrant power of wealth, honour and excellence, the man whom you inspire and exhort to win wealth and to dedicate himself to the service of divinities goes forward in the acquisition of lands, cows, and the light of knowledge and culture under your protection.
मराठी (1)
भावार्थ
गो शब्द अनेक अर्थासाठी प्रसिद्ध आहे. जो कोणी देवयज्ञ करतो त्याला सर्व प्रकारचे धन प्राप्त होते व (गौ) संपूर्ण इंद्रिये त्याच्या वशीभूत होतात. ॥५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे विप्र=“विशेषेण प्राति=पूरयति जगदिदं स विप्रः” हे जगत्पोषक ! हे अग्ने ! हे भक्तजन ! मेधसातौ=देवयज्ञे । धनाय=सम्पत्त्यै । हिनोषि=नोदयसि । स तवोत्या पालनेन । गोषु+गन्ता=गवां स्वामी भवतीत्यर्थः ॥५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(विप्र) हे जगत्पोषक, हे प्रेम से संसारदर्शक (अग्ने) सर्वाधार ईश ! (मेधसातौ) देवयज्ञ में (धनाय) धनों की प्राप्ति के लिये (यम्+त्वम्) जिसको तू (हिनोषि) प्रेरणा करता है, (सः) वह (तव+ऊती) तेरी सहायता और रक्षा से (गोषु+गन्ता) गौ आदि पशुओं का स्वामी होता है ॥५ ॥
भावार्थ
गो शब्द अनेकार्थ प्रसिद्ध है । जो कोई देवयज्ञ करता है, उसको सब प्रकार के धन प्राप्त होते हैं और (गौ) सकल इन्द्रिय उसके वशीभूत होते हैं ॥५ ॥
विषय
उस के आवश्यक गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( विप्र ) मेधाविन् ! हे ( अग्ने ) ज्ञानवन्, तेजस्विन् ! ( मेध-सातौ ) संग्राम वा यज्ञ में ( त्वं ) तू ( धनाय हिनोषि ) धन प्राप्त करने के लिये उत्साहित करता है। ( सः) वह ( तव ऊती ) तेरी रक्षा में रहकर (गोषु गन्ता) वाणियों में और भूमियों पर भी वश करने वाला होता है। इत्येकादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ७ विराड् गायत्री। २, ६, ८, ९ निचृद् गायत्री। ३, ५ गायत्री। १०, १०, १३ निचृद् बृहती। १४ विराड् बृहती। १२ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ बृहती॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
गोषु गन्ता
पदार्थ
[१] हे (विप्र) = विशेषरूप से हमारा पूरण करनेवाले (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (यं) = जिस भी व्यक्ति को (त्वं) = आप (मेधसातौ) = यज्ञों की प्राप्ति के निमित्त धनाय हिनोषि = धन के लिए प्रेरित करते हैं । सः = वह तव ऊती आपके रक्षणों के द्वारा गोषु गन्ता - ज्ञान की वाणियों में गतिवाला होता है। [२] हम प्रभु की उपासना करते हैं तो प्रभु हमें यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त करते हैं। उन यज्ञादि के लिए आवश्यक धनों को भी प्राप्त कराते हैं। यह उपासक धनों का यज्ञों में विनियोग करता हुआ विषयों में नहीं फंसता और उत्कृष्ट ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु उपासक को यज्ञों के लिए धनों की कमी नहीं होने देते। प्रभु से रक्षित हुआ- हुआ यह व्यक्ति ज्ञान की वाणियों की ओर चलता है।
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