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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 71/ मन्त्र 15
    ऋषिः - सुदीतिपुरुमीळहौ तयोर्वान्यतरः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    अ॒ग्निं द्वेषो॒ योत॒वै नो॑ गृणीमस्य॒ग्निं शं योश्च॒ दात॑वे । विश्वा॑सु वि॒क्ष्व॑वि॒तेव॒ हव्यो॒ भुव॒द्वस्तु॑ॠषू॒णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । द्वेषः॑ । योत॒वै । नः॒ । गृ॒णी॒म॒सि॒ । अ॒ग्निम् । शम् । योः । च॒ । दात॑वे । विश्वा॑सु । वि॒क्षु । अ॒वि॒ताऽइ॑व । हव्यः॑ । भुव॑त् । वस्तुः॑ । ऋ॒षू॒णाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं द्वेषो योतवै नो गृणीमस्यग्निं शं योश्च दातवे । विश्वासु विक्ष्ववितेव हव्यो भुवद्वस्तुॠषूणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । द्वेषः । योतवै । नः । गृणीमसि । अग्निम् । शम् । योः । च । दातवे । विश्वासु । विक्षु । अविताऽइव । हव्यः । भुवत् । वस्तुः । ऋषूणाम् ॥ ८.७१.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 71; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We adore Agni for driving away our enemies from us and for giving us peace and settlement with happiness. He is like a protector among people, giver of home and adored by sages.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कुणाचाही आम्ही द्वेष करता कामा नये. जोपर्यंत होईल तोपर्यंत जगाला सुख द्यावे व त्या ईश्वराची स्तुती, प्रार्थना करावी. कारण तो सर्वांचा अधीश्वर आहे. ॥१५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    नोऽस्माकम् । द्वेषः=द्वेष्टॄन् जनान् । योतवै=पृथक्कर्तुम् । अग्निं+गृणीमसि=गृणीमः=स्तुमः । शं=सुखम् । योः= भयानाममिश्रञ्च । दातवे=दातुम् । अथवा । शं=सुखस्य । योः+मिश्रणाय च । गृणीमसि । सोऽग्निर्विश्वासु सर्वासु । विक्षु=प्रजास्ववितेव रक्षिता राजेवर्षूणामृषीणामस्माकं वस्तुर्वासको देवो हव्यो भुवत्=भवतु । अथवा सर्वासु विक्षु यजमानरूपासु प्रजासु मध्य ऋषूणामृषीणां सूक्तद्रष्टॄणामस्माकमेव हव्यो भवतु वस्तुः सर्वस्य वासको देवः ॥१५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हम उपासकगण (नः) अपने (द्वेषः) द्वेषियों को (योतवै) दूर करने के लिये (अग्निम्) परमात्मा से (गृणीमसि) प्रार्थना करते हैं और (शम्+योः+च) सुख के मिश्रण को (दातवे) देने के लिये ईश्वर से प्रार्थना करते हैं । जो परमात्मा (विश्वासु) समस्त (विक्षु) प्रजाओं में (अविता इव) रक्षकरूप से स्थित है और जो (ऋषूणाम्) ऋषियों का (हव्यः) स्तुत्य है और (वस्तुः) वास देनेवाला (भुवत्) है ॥१५ ॥

    भावार्थ

    किसी के साथ हम द्वेष न करें, जहाँ तक हो, जगत् में सुख पहुँचावें और उस ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करें, जो सबका अधीश्वर है ॥१५ ॥

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    विषय

    देववत् पूज्य अग्नि परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हम लोग ( नः द्वेषः दातवे ) अपने द्वेष भावों को दूर करने के लिये ( अग्निं गृणीमसि ) सर्वव्यापक सर्वज्ञ प्रभु की उपासना करें। और ( शंयोः च दातवे ) शान्ति और दुःख नाश करने के लिये भी उसी ( अग्निं ) तेजोमय का ध्यान करें। वह ( विश्वासु विक्षु ) समस्त विद्वान् ज्ञानी पुरुषों का आश्रय स्थान और ( हव्यः भवत् ) स्तुत्य है। इति त्रयोदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ७ विराड् गायत्री। २, ६, ८, ९ निचृद् गायत्री। ३, ५ गायत्री। १०, १०, १३ निचृद् बृहती। १४ विराड् बृहती। १२ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ बृहती॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वस्तुः ऋषूणाम्

    पदार्थ

    [१] (अग्निं) = उस परमात्मा को (गृणीमसि) = हम स्तुत करते हैं, जिससे (नः द्वेषः योतवै) = हमारे से द्वेष की भावनाओं को वे दूर करें। (अग्निं) = उस परमात्मा को हम (शं) = शान्ति (च) = तथा (योः) = भयों के यावन को देने के लिए पुकारते हैं। [२] वे प्रभु (विश्वासु विक्षु) सब प्रजाओं में (अविता इव) = रक्षक के समान (हव्यः भुवत्) = पुकारने योग्य होते हैं। वे प्रभु (ऋषूणाम्) = तत्त्वद्रष्टा पुरुषों के (वस्तुः) = उत्तम निवास का कारण होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ:- प्रभु का उपासन हमें 'निर्देष- शान्त व निर्भय' बनाता है। प्रभु हमारे रक्षक हैं, तत्त्वद्रष्टाओं के वस्तु [निवासक] हैं। गतमन्त्र के अनुसार 'निर्दोष, शान्त व निर्भय' बनकर हम 'हर्यत' बनते हैं- - उत्तम गति कान्तिवाले। प्रभु का स्तवन करने से 'प्रागाथ' होते हैं। 'हर्यत प्रागाथ' ही अगले सूक्त के हैं :-

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