ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 71/ मन्त्र 3
ऋषिः - सुदीतिपुरुमीळहौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
स नो॒ विश्वे॑भिर्दे॒वेभि॒रूर्जो॑ नपा॒द्भद्र॑शोचे । र॒यिं दे॑हि वि॒श्ववा॑रम् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । विश्वे॑भिः । दे॒वेभिः॑ । ऊर्जः॑ । नपा॑त् । भद्र॑ऽशोचे । र॒यिम् । दे॒हि॒ । वि॒श्वऽवा॑रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो विश्वेभिर्देवेभिरूर्जो नपाद्भद्रशोचे । रयिं देहि विश्ववारम् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । नः । विश्वेभिः । देवेभिः । ऊर्जः । नपात् । भद्रऽशोचे । रयिम् । देहि । विश्वऽवारम् ॥ ८.७१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 71; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Ruler of the earth as you are, O lord of infallible energy and blissful flames of fire, bless us with universal wealth with all the light, honour and excellence of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
ऊर्ज = बल । नपात् = न पाडणारा. जो बलाला हीन करत नाही तो ऊर्जोनपात अर्थात बलप्रद. देव = हा शब्द सर्व पदार्थवाचक आहे. या मंत्राचा अर्थ असा की, संपूर्ण प्राण्यांबरोबर मलाही साह्य कर. ॥३॥
संस्कृत (1)
विषयः
अनया धनं याचते ।
पदार्थः
हे ऊर्जोनपात्=बलस्य न पातयितः किन्तु बलस्य प्रदातः ! हे भद्रशोचे=कल्याणकारि तेजोयुक्त देव ! स त्वम् । नोऽस्मभ्यम् । विश्वेभिर्देवेभिः=सर्वैः पदार्थैः सह । विश्ववारं=विश्ववरणीयं रयिं देहि ॥३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
इससे धन की याचना करते हैं ।
पदार्थ
(ऊर्जोनपात्) हे बलप्रद (भद्रशोचे) हे कल्याणकारि तेजोयुक्त प्रभो ! (सः) सर्वत्र दीप्यमान तू (विश्वेभिः+देवेभिः) समस्त पदार्थों के साथ (नः) हम प्राणियों को (विश्ववारम्) सर्ववरणीय=सर्वग्रहणीय (रयिम्) सम्पत्ति (देहि) दे ॥३ ॥
भावार्थ
ऊर्ज्=बल । नपात्=न गिरानेवाला । जो बल को न गिरावे, वह ऊर्जोनपात् अर्थात् बलप्रद है । देव=यह शब्द सर्वपदार्थवाचक है । मन्त्र का आशय यह है कि सकल प्राणियों के साथ मुझको भी साहाय्य दे ॥३ ॥
विषय
उस के आवश्यक गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( ऊर्जः नपाद् ) बल को न गिरने देने हारे ! हे ( भद्रशोचे ) कल्याणकारी कान्ति वा तेज से सम्पन्न ! ( सः ) वह तू (नः) हमें ( विश्वेभिः देवेभिः ) समस्त विद्वान् पुरुषों द्वारा ( विश्व-वारं ) सब से वरण करने योग्य ( रयिं ) धन ( देहि ) प्रदान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ७ विराड् गायत्री। २, ६, ८, ९ निचृद् गायत्री। ३, ५ गायत्री। १०, १०, १३ निचृद् बृहती। १४ विराड् बृहती। १२ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ बृहती॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
उर्जोनपात्+भद्रशोचे
पदार्थ
[१] हे (ऊर्जोनपात्) = शक्ति को न गिरने देनेवाले (भद्रशोचे) = कल्याणकर दीप्तिवाले प्रभो ! (सः) = वे आप (नः) = हमें (विश्वेभिः देवेभिः) = सब दिव्यगुणों के साथ (रयिं) = धन को (देहि) = दीजिए, जो धन (विश्ववारम्) = सब वरणीय वस्तुओं को प्राप्त करानेवाला है। [२] हम प्रभु का उपासन करेंगे तो प्रभु के अनुग्रह से जहाँ शक्ति को प्राप्त करेंगे, वहाँ साथ ही कल्याणकर दीप्ति को प्राप्त करनेवाले बनेंगे। यह शक्ति व दीप्ति हमें दिव्य गुणों के साथ वरणीय धन को प्राप्त कराएगी।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु शक्ति को न गिरने देनेवाले व कल्याणकर दीप्ति को प्राप्त करानेवाले हैं। इनको प्राप्त करके हम दिव्यगुणों व वरणीय धनों को प्राप्त करते हैं।
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