ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 11
स मा॑मृजे ति॒रो अण्वा॑नि मे॒ष्यो॑ मी॒ळ्हे सप्ति॒र्न वा॑ज॒युः । अ॒नु॒माद्य॒: पव॑मानो मनी॒षिभि॒: सोमो॒ विप्रे॑भि॒ॠक्व॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठसः । म॒मृजे । ति॒रः । अण्वा॑नि । मे॒ष्यः॑ । मी॒ळ्हे । सप्तिः॑ । न । वा॒ज॒ऽयुः । अ॒नु॒ऽमाद्यः॑ । पव॑मानः । म॒नी॒षिऽभिः॑ । सोमः॑ । विप्रे॑भिः । ऋक्व॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स मामृजे तिरो अण्वानि मेष्यो मीळ्हे सप्तिर्न वाजयुः । अनुमाद्य: पवमानो मनीषिभि: सोमो विप्रेभिॠक्वभिः ॥
स्वर रहित पद पाठसः । ममृजे । तिरः । अण्वानि । मेष्यः । मीळ्हे । सप्तिः । न । वाजऽयुः । अनुऽमाद्यः । पवमानः । मनीषिऽभिः । सोमः । विप्रेभिः । ऋक्वऽभिः ॥ ९.१०७.११
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 11
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मेष्यः) सर्वकामनापूरकः (वाजयुः) ऐश्वर्ययुक्तः परमात्मा (मीळ्हे, न) यथा युद्धे (सप्तिः) अश्वः सत्तास्फूर्तियुक्तो भवति एवं हि ओजस्वी परमात्मा (अण्वानि) शब्दादिपञ्चतन्मात्रं (तिरः) तिरस्कृत्य (ममृजे, सः) बुद्धिवृत्तिविषयः स क्रियते (सोमः) सर्वोत्पादकः सः (विप्रेभिः) मेधाविभिः (ऋक्वभिः) कालेकाले यज्ञं कुर्वद्भिः (मनीषिभिः) मनस्विभिः साक्षात्कृतः (पवमानः) सर्वं पुनानः (अनुमाद्यः) आनन्दं प्रददाति ॥११॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मेष्यः) मिषतीति “मेष्यः”=सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाला (वाजयुः) ऐश्वर्य्ययुक्त भगवान् (मीळ्हे) युद्ध में (न) जिस प्रकार (सप्तिः) अश्व सत्ता स्फूर्तिवाला होता है, इस प्रकार ओजस्वी (अण्वानि) शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, इन पञ्चतन्मात्राओं को (तिरः) तिरस्कार करके (सः, ममृजे) वह बुद्धिवृत्ति का विषय किया जाता है और (सोमः) उक्त सर्वोत्पादक परमात्मा (विप्रेभिः) जो मेधावी है और (ऋक्वभिः) जो समय-समय पर यज्ञ करनेवाले हैं, ऐसे (मनीषिभिः) मनस्वी पुरुषों द्वारा साक्षात्कार किया हुआ (पवमानः) सबको पवित्र करनेवाला वह परमात्मा (अनुमाद्यः) आनन्द प्रदान करता है ॥११॥
भावार्थ
जो सर्वोपरि ब्रह्मानन्द है, जिसके आगे और सब आनन्द फीके हैं, वह एकमात्र परमात्मपरायण होने से ही उपलब्ध होता है, अन्यथा नहीं ॥११॥
विषय
मनीषिभिः विप्रेभिः ऋक्वभिः
पदार्थ
(सः) = वह सोम (मेष्य:) = [मिष् To open the eyes] इस चमकीली- हमारी आँखों को अपनी ओर आकृष्ट करनेवाली, प्रकृति के (तिरः) = तिरोहित-गुप्त (अण्वानि) = सूक्ष्म तत्त्वों को (मामृजे) = हमारे लिये शुद्ध कर देता है । सोमरक्षण के द्वारा हम इस मायामयी प्रकृति के रहस्य को समझने लगते हैं। यह सोम (मीढे) = संग्राम में (सप्तिः न) = समर्पणशील घोड़े के समान होता है। यह (वाजयुः) = हमारे साथ शक्ति को जोड़ने की कामना वाला होता है। इसके द्वारा सशक्त बनकर ही हम जीवन संग्राम में विजयी बनते हैं। यह (पवमानः सोमः) = पवित्र करनेवाला सोम (मनीषिभिः) = विद्वानों से, (विप्रेभिः) = अपना पूरण करनेवाले ज्ञानी पुरुषों से, (ऋक्वभिः) = [ऋच स्तुतौ] पूरण के दृष्टिकोण से ही प्रभु का स्तवन करने वालों से (अनुमाद्यः) = अनुमोदनीय होता है, अर्थात् जितना - जितना वे इसका रक्षण कर पाते हैं, उतना उतना ही आनन्द का अनुभव करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें तीव्रबुद्धि बनाकर प्रकृति के सूक्ष्म तत्त्वों को समझने के योग्य बनाता है। यह जीवन संग्राम में हमें शक्तिशाली बनाता है। आनन्द का अनुभव कराता है। बुद्धिमान, अपना पूरण करनेवाले स्तोता ही इसका रक्षण कर पाते हैं ।
विषय
स्तुत्य आत्मा।
भावार्थ
(सः) वह आत्मा (मेष्यः) अन्धकारयुक्त प्रकृति के (अण्वानि) सूक्ष्म २ बन्धनों को भी (तिरः) दूर कर (ममृजे) शुद्ध होजाता है। (मीढे सप्तिः न) वेगवान् अश्व के तुल्य (वाज-युः) बल, वेग और ऐश्वर्य चाहता हुआ, (पवमानः) पवित्र करता हुआ, (मनीषिभिः) बुद्धिमान् (विप्रेभिः) विद्वान् (ऋक्वभिः) स्तुतिकर्त्ता जनों द्वारा (अनुमाद्यः) प्रतिदिन स्तुति करने योग्य है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सप्तर्षय ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ६, ९, १४, २१ विराड् बृहती। २, ५ भुरिग् बृहती। ८,१०, १२, १३, १९, २५ बृहती। २३ पादनिचृद् बृहती। ३, १६ पिपीलिका मध्या गायत्री। ७, ११,१८,२०,२४,२६ निचृत् पंक्तिः॥ १५, २२ पंक्तिः॥ षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Like a war horse in victorious battle, Soma radiates across the fine fluctuations of senses, ecstatic, flowing in exuberant streams, when it is impelled and realised by the wise, vibrant Vedic sages in meditation.
मराठी (1)
भावार्थ
जो सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मानंद आहे. ज्याच्यासमोर इतर सर्व आनंद फिक्के आहेत. तो एकमात्र परमात्मपरायण असल्यामुळेच उपलब्ध होतो, अन्यथा नाही. ॥११॥
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