ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 26
अ॒पो वसा॑न॒: परि॒ कोश॑मर्ष॒तीन्दु॑र्हिया॒नः सो॒तृभि॑: । ज॒नय॒ञ्ज्योति॑र्म॒न्दना॑ अवीवश॒द्गाः कृ॑ण्वा॒नो न नि॒र्णिज॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पः । वसा॑नः । परि॑ । कोश॑म् । अ॒र्ष॒ति॒ । इन्दुः॑ । हि॒या॒नः । सो॒तृऽभिः॑ । ज॒नय॑न् । ज्योतिः॑ । म॒न्दनाः॑ । अ॒वी॒व॒श॒त् । गाः । कृ॒ण्वा॒नः । न । निः॒ऽनिज॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपो वसान: परि कोशमर्षतीन्दुर्हियानः सोतृभि: । जनयञ्ज्योतिर्मन्दना अवीवशद्गाः कृण्वानो न निर्णिजम् ॥
स्वर रहित पद पाठअपः । वसानः । परि । कोशम् । अर्षति । इन्दुः । हियानः । सोतृऽभिः । जनयन् । ज्योतिः । मन्दनाः । अवीवशत् । गाः । कृण्वानः । न । निःऽनिजम् ॥ ९.१०७.२६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 26
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोतृभिः) कर्मयोगिभिः (हियानः) प्रेर्यमाणः (इन्दुः) प्रकाशस्वरूपः परमात्मा (कोशं) तदन्तःकरणं (पर्यर्षति) प्राप्नोति (अपः, वसानः) कर्मणामध्यक्षः सः (ज्योतिः) सूर्यादिज्योतींषि (जनयन्) उत्पादयन् (गाः) पृथिव्यादिलोकान् (अवीवशत्) दीपयन् (निर्णिजम्) स्वरूपं (कृण्वानः, न) स्पष्टं कुर्वन्निव (मन्दनाः) स आनन्दस्वरूपः स्वरूपमभिव्यनक्ति ॥२६॥ इति सप्तोत्तरशततमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोतृभिः) कर्मयोगियों से (हियानः) प्रेरणा किया हुआ (इन्दुः) प्रकाशस्वरूप परमात्मा (कोशम्) उनके अन्तःकरण को (पर्यर्षति) प्राप्त होता है। (अपः, वसानः) कर्मों का अध्यक्ष परमात्मा (ज्योतिः) सूर्यादि ज्योतियों को (जनयन्) उत्पन्न करके (गाः) पृथिव्यादि लोकों को (अवीवशत्) देदीप्यमान करता हुआ और (निर्णिजम्) अपने स्वरूप को (कृण्वानः) स्पष्ट करते हुए के (न) समान (मन्दनाः) अभिव्यक्त करता है ॥२६॥
भावार्थ
सूर्य-चन्द्रादि नाना ज्योतियों को उत्पन्न करनेवाला परमात्मा सब कर्मों का अध्यक्ष है, वह अपनी कृपा से हमारे अन्तःकरण को प्राप्त हो ॥२६॥ यह १०७ वाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
ज्ञान स्तुति शुद्धि
पदार्थ
(सोतृभिः) = उत्पन्न करनेवाले इन सोम के उत्पादक पुरुषों से (हियानः) = शरीर के अन्दर प्रेरित किया जाता हुआ यह (इन्दुः) = सोम (अपः वसानः) = कर्मों को धारण करता हुआ (कोशं परि अर्षति) = आनन्दमय कोश की ओर गतिवाला होता है। (ज्योतिः जनयन्) = यह हमारे जीवनों में ज्ञान की ज्योति को उत्पन्न करता है । (मन्दनाः) = स्तुतियों की (अवीवशत्) = कामना करता है, अर्थात् हमारे अन्दर प्रभु स्तवन की वृत्ति को पैदा करता है । (गाः) = इन ज्ञान की वाणियों को (निर्णिजम् न कृण्वानः) = शोधक के रूप में करता है । सोमरक्षण से दीप्त हुई हुई ज्ञान की वाणियाँ हमारे जीवनों को शुद्ध करती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोम हमारे जीवनों को ज्ञानमय, स्तुतिप्रवण व शुद्ध करता है। अगले सूक्त में ('गौरिवीति:') = सात्त्विक भोजन वाला, (शक्ति) = शक्ति का पुंज, (उरु:) = विशाल हृदयवाला, (ऋजिष्वा) = सरलमार्ग से गतिवाला, (ऊर्ध्वसद्मा) = ऊपर ब्रह्मलोक में अपना घर बनानेवाला, पार्थिव भोगों में न फँसनेवाला, (कृतयशाः) = यशस्वी जीवन वाला, (ऋणञ्चयः) = रेतः कण रूप जलों का सञ्चय करनेवाला [ॠणं, जलम्] ये ऋषि हैं। ये सोम का शंसन करते हुए कहते हैं-
विषय
आत्मा का गर्भ में प्रवेशवत् आनन्दमय कोश में प्रवेश।
भावार्थ
(सोतृभिः हियानः इन्दुः) उत्पन्न करने वाले माता पिता आदि जलीय से प्रेरित होता हुआ द्रवित शुक्र रूप जीव (अपः वसानः) सूक्ष्म जलीय अंशों वा प्राणों में आच्छादित होकर (कोशम् परि अर्षति) गर्भ की ओर जाता है। (होतृभिः हियानः) उपासकों से प्रेरित (इन्दुः) तेजोमय आत्मा (अपः वसानः) आप्त जनों के बीच में रहता हुआ, (कोशम् परि अर्षति) विशुद्ध आनन्दमय प्रभु को प्राप्त होता है। वह (ज्योतिः जनयन्) दीप्तिमय रूप को प्रकट करता हुआ (मन्दनाः गाः कृण्वानः) आनन्दजनक स्तुति-वाणियों को करता हुआ (निः निजम् कृण्वानः) अपने अति विशुद्ध रूप को प्रकट करता है। इति षोडशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सप्तर्षय ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ६, ९, १४, २१ विराड् बृहती। २, ५ भुरिग् बृहती। ८,१०, १२, १३, १९, २५ बृहती। २३ पादनिचृद् बृहती। ३, १६ पिपीलिका मध्या गायत्री। ७, ११,१८,२०,२४,२६ निचृत् पंक्तिः॥ १५, २२ पंक्तिः॥ षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Invoked and exalted by celebrants, the Soma spirit of light and joy radiates to the heart and soul of the devotee, there inspiring and enlightening the thoughts, will and imagination to action, creating the light of joyous vision and energising the mind and senses, as if shaping the original spirit of purity and divinity of the soul anew.
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्य-चंद्र इत्यादी नाना ज्योती उत्पन्न करणारा परमात्मा सर्व कर्मांचा अध्यक्ष आहे, त्याची कृपा आमच्यावर होऊन तो आम्हाला प्राप्त व्हावा. ॥२६॥
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