ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 6
पु॒ना॒नः सो॑म॒ जागृ॑वि॒रव्यो॒ वारे॒ परि॑ प्रि॒यः । त्वं विप्रो॑ अभ॒वोऽङ्गि॑रस्तमो॒ मध्वा॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्ष नः ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒ना॒नः । सो॒म॒ । जागृ॑विः । अव्यः॑ । वारे॑ । परि॑ । प्रि॒यः । त्वम् । विप्रः॑ । अ॒भ॒वः॒ । अङ्गि॑रःऽतमः । मध्वा॑ । य॒ज्ञम् । मि॒मि॒क्ष॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनानः सोम जागृविरव्यो वारे परि प्रियः । त्वं विप्रो अभवोऽङ्गिरस्तमो मध्वा यज्ञं मिमिक्ष नः ॥
स्वर रहित पद पाठपुनानः । सोम । जागृविः । अव्यः । वारे । परि । प्रियः । त्वम् । विप्रः । अभवः । अङ्गिरःऽतमः । मध्वा । यज्ञम् । मिमिक्ष । नः ॥ ९.१०७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (पुनानः) सर्वान् पावयन् भवान् (जागृविः) शश्वन्निजचेतनसत्तया विराजमानः (अव्यः) सर्वरक्षकः (वारे) त्वद्वरणकर्तुरन्तःकरणे (परि, प्रियः) नितान्तप्रियः (त्वं, विप्रः) भवान् मेधाव्यस्ति (अङ्गिरस्तमः, अभवः) सर्वप्राणेषु अतिप्रियतमः (मध्वा) स्वानन्देन (नः) अस्माकं (यज्ञं) क्रतुं (मिमिक्ष) सिञ्चतु ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (पुनानः) आप सबको पवित्र करते हुए (जागृविः) सदैव अपनी चेतन सत्ता से विराजमान हैं, (अव्यः) सर्वरक्षक हैं, (वारे) आपको वरण करनेवाले पुरुष के अन्तःकरण में (परि, प्रियः) आप अत्यन्त प्रिय हैं, (त्वम्) आप (विप्रः) मेधावी हैं, “विप्र इति मेधाविनामसु पठितम्” (अङ्गिरस्तमः, अभवः) सब प्राणों में प्रियतम अर्थात् प्राणों के भी प्राण हैं, (मध्वा) अपने आनन्द से (नः) हमारे (यज्ञम्) यज्ञ को (मिमिक्ष) सिञ्चन करें ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा उपासकों के यज्ञों को अपनी ज्ञानमयी वृष्टि द्वारा सुसिञ्चित करके आनन्दित करते हैं ॥६॥
विषय
विप्रः अंगिरस्तमः
पदार्थ
हे (सोम) = वीर्य ! (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ तू (जागृविः) = सदा जागरित प्रहरी है। तू हमारे पर रोगादि शत्रुओं के आक्रमण को नहीं होने देता। (अव्यः) = रक्षक पुरुष के (वारे) = जिसमें से वासनाओं का वारण किया गया है उस हृदय में (परिप्रियः अभवः) = सर्वथा प्रिय होता है, प्रीणन को करनेवाला होता है । (त्वम्) = तू (विप्रः) = विशेष रूप से पूरण करनेवाला, (अंगिरस्तमः) = अतिशयेन अंग-प्रत्यंग में रस का संचार करनेवाला (अभवः) = होता है। हे सोम ! तू (नः यज्ञम्) = हमारे इस जीवन-यज्ञ को (मध्वा) = माधुर्य से (मिमिक्ष) = सीचनेवाला हो । जीवन को मधुर बनानेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम हमारा सावधान प्रहरी है । हमारा पूरण करनेवाला, अंग-प्रत्यंग में रस का संचार करनेवाला व जीवन को मधुर बनानेवाला है।
विषय
वह अनालसी होकर उच्च पद पावे।
भावार्थ
हे (सोम) उत्तम अध्यक्ष ! तू (जागृविः) सदा जागरणशील और तू (प्रियः) सर्वप्रिय, (विप्रः) मेधावी, होने के कारण (अध्यः वारे) सर्वरक्षक सैन्यवर्ग के सर्वश्रेष्ठ अंश पर (परि पुनानः) अभिषिक्त होता हुआ, (अंगिरस्तमः) देह में जीव नर के समान राष्ट्र-शरीर में सबसे अधिक तेजस्वी, (अभवः) हो। तू (नः) हमारे (यज्ञं) यज्ञ को (मध्वा मिमिक्ष) मधुर आनन्द से, सुख से सींच, बढ़ा।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सप्तर्षय ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ६, ९, १४, २१ विराड् बृहती। २, ५ भुरिग् बृहती। ८,१०, १२, १३, १९, २५ बृहती। २३ पादनिचृद् बृहती। ३, १६ पिपीलिका मध्या गायत्री। ७, ११,१८,२०,२४,२६ निचृत् पंक्तिः॥ १५, २२ पंक्तिः॥ षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Pure and all purifying, O Soma, spirit of peace and bliss, ever awake and awakening with your eternal consciousness, all protective and promotive, dearest in the heart of the cherished loving soul, you are the vibrant awareness of omniscience and the very life energy of life. O Spirit of peace, joy and divine bliss, pray bless our yajna of life with the honey sweets of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपासकांच्या यज्ञांना आपल्या ज्ञानमयी वृष्टीद्वारे सुसिञ्चित करून आनंदित करतो. ॥६॥
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