ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 2
नू॒नं पु॑ना॒नोऽवि॑भि॒: परि॑ स्र॒वाद॑ब्धः सुर॒भिन्त॑रः । सु॒ते चि॑त्त्वा॒प्सु म॑दामो॒ अन्ध॑सा श्री॒णन्तो॒ गोभि॒रुत्त॑रम् ॥
स्वर सहित पद पाठनू॒नम् । पु॒ना॒नः । अवि॑ऽभिः । परि॑ । स्र॒व॒ । अद॑ब्धः । सु॒र॒भिम्ऽत॑रः । सु॒ते । चि॒त् । त्वा॒ । अ॒प्ऽसु । मा॒दा॒मः॒ । अन्ध॑सा । श्री॒णन्तः॑ । गोभिः॑ । उत्ऽत॑रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नूनं पुनानोऽविभि: परि स्रवादब्धः सुरभिन्तरः । सुते चित्त्वाप्सु मदामो अन्धसा श्रीणन्तो गोभिरुत्तरम् ॥
स्वर रहित पद पाठनूनम् । पुनानः । अविऽभिः । परि । स्रव । अदब्धः । सुरभिम्ऽतरः । सुते । चित् । त्वा । अप्ऽसु । मादामः । अन्धसा । श्रीणन्तः । गोभिः । उत्ऽतरम् ॥ ९.१०७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे परमात्मन् ! (नूनम्) निश्चयं (अविभिः) स्वरक्षाभिः (पुनानः) पवित्रयन् (परिस्रव) मदन्तःकरणे विराजतां (अदब्धः) भवान् अखण्डनीयः (सुरभिन्तरः) अत्यन्तशोभनीयः, वयं (उत्तरं) अतिप्रेम्णा (गोभिः) ज्ञानवृत्त्या (श्रीणन्तः) तं त्वां साक्षात्कुर्वन्तः (अन्धसा) मनोमयकोशेन (अप्सु) कर्मसु (सुते चित्) साक्षात्काराय (त्वा, मदामः) त्वां स्तुमः ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (नूनम्) निश्चय करके (अविभिः) अपनी रक्षाओं से (पुनानः) पवित्र करते हुए आप (परिस्रव) हमारे अन्तःकरण में आकर विराजमान हों, आप (अदब्धः) अखण्डनीय हैं, (सुरभिन्तरः) अत्यन्त शोभनीय हैं, हम लोग (उत्तरम्) अत्यन्त प्रेम से (गोभिः) ज्ञानरूप वृत्तियों द्वारा (श्रीणन्तः) तुम्हारा साक्षात्कार करते हुए (अन्धसा) मनोमय कोश से (अप्सु) कर्मों में (सुते, चित्) साक्षात्कार के लिये (त्वा) तुम्हारा (मदामः) स्तवन करते हैं ॥२॥
भावार्थ
हे परमात्मा सच्चिदानन्दस्वरूप हैं, आपका स्वरूप अखण्डनीय है, इसलिये आपका ध्यान व्यापकभाव से ही किया जा सकता है, अन्यथा नहीं ॥२॥
विषय
सुरभिन्तर:
पदार्थ
(अविभिः) = रक्षा करने वालों से (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ तू (नूनम्) = निश्चय से (परिस्रवः) = शरीर में चारों ओर गतिवाला हो। (अदब्धः) = यह सोम रोगकृमि व वासना रूप शत्रुओं से हिंसित नहीं होता। (सुरभिन्तर:) = जीवन को अतिशयेन सुगन्धित बनाता है। हे सोम ! (त्वा सुते) = तेरे उत्पन्न होने पर (चित्) = निश्चय से (अप्सु मदामः) = कर्मों में आनन्द का अनुभव करते हैं । हम (अन्धसा) = सात्त्विक अन्न के द्वारा तथा (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा इस (उत्तरम्) = अन्य सब धातुओं से उत्कृष्ट सोम को (श्रीणन्तः) = परिपक्व करते हैं। सात्त्विक अन्न 'सोम्य भोजन ' कहलाते हैं । ये भोजन सोमरक्षण की अनुकूलता वाले होते हैं। इसी प्रकार ज्ञान की वाणियों में अतिरिक्त समय को बिताने से इस सोम में वासनाओं का उबाल नहीं उत्पन्न होता ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के होने पर जीवन रोगादि से अहिंसित व यशस्वी बनता है । शक्ति व स्फूर्ति उत्पन्न होकर कर्मों में आनन्द का अनुभव होता है। इस सोमरक्षण के लिये सात्त्विक अन्न का सेवन व स्वाध्याय साधन हैं ।
विषय
अभिषिक्त राजा के कर्त्तव्य। उसकी उत्तम गुण-स्तुति।
भावार्थ
तू (अदब्धः) कभी पीड़ित न होकर (नूनम्) निश्चय से (पुनानः) राज्य को दुःखदायी जनों से रहित, निष्कण्टक करता हुआ (अविभिः) राज्यरक्षक सैन्यों सहित (परि स्रव) सर्वत्र आ जा। तू (सुते चित्) अभिषिक्त पद पर (सुरभिं-तरः) और अधिक उत्तम रीति से कार्य-संपादन करने वाला और अधिक सच्चरित्र होकर रह। (अप्सु) प्रजाओं के बीच (उत्तरम्) अन्यों से अधिक उत्कृष्ट गुणवान्, चरित्र-वान् (त्वा) तुझ को देखकर तेरी हम (श्रीणन्तः) सेवा करते हुए (त्वा) तुझे (अन्धसा गोभिः) अन्नों और गो-दुग्धों से (मदामः) तृप्त करें और (गोभिः मदामः) वाणियों से तेरी स्तुति करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सप्तर्षय ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ६, ९, १४, २१ विराड् बृहती। २, ५ भुरिग् बृहती। ८,१०, १२, १३, १९, २५ बृहती। २३ पादनिचृद् बृहती। ३, १६ पिपीलिका मध्या गायत्री। ७, ११,१८,२०,२४,२६ निचृत् पंक्तिः॥ १५, २२ पंक्तिः॥ षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
For sure, pure and purifying, flow on with protective and promotive forces, gracious, undaunted, more and more charming and blissful. When you are realised in our actions, mixed as one with our energies, will and senses, then we rejoice and celebrate you in our perceptions with hymns of praise, and later in silent communion.
मराठी (1)
भावार्थ
हे परमात्मा! तू सच्चिदानंद स्वरूप आहेस. तुझे स्वरूप अखंडनीय आहे. त्यासाठी तुझे ध्यान व्यापकभावाने केले जाऊ शकते, अन्यथा नाही. ॥२॥
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