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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 107 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 5
    ऋषिः - सप्तर्षयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    दु॒हा॒न ऊध॑र्दि॒व्यं मधु॑ प्रि॒यं प्र॒त्नं स॒धस्थ॒मास॑दत् । आ॒पृच्छ्यं॑ ध॒रुणं॑ वा॒ज्य॑र्षति॒ नृभि॑र्धू॒तो वि॑चक्ष॒णः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दु॒हा॒नः । ऊधः॑ । दि॒व्यम् । मधु॑ । प्रि॒यम् । प्र॒त्नम् । स॒धऽस्थ॑म् । आ । अ॒स॒द॒त् । आ॒ऽपृच्छ्य॑म् । ध॒रुण॑म् । वा॒जी । अ॒र्ष॒ति॒ । नृऽभिः॑ । धू॒तः । वि॒ऽच॒क्ष॒णः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दुहान ऊधर्दिव्यं मधु प्रियं प्रत्नं सधस्थमासदत् । आपृच्छ्यं धरुणं वाज्यर्षति नृभिर्धूतो विचक्षणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दुहानः । ऊधः । दिव्यम् । मधु । प्रियम् । प्रत्नम् । सधऽस्थम् । आ । असदत् । आऽपृच्छ्यम् । धरुणम् । वाजी । अर्षति । नृऽभिः । धूतः । विऽचक्षणः ॥ ९.१०७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (दुहानः) सर्वेषां परिपूरयिता (ऊधः) सर्वाश्रयश्च सः (मधु) आनन्दस्वरूपं (प्रत्नं) प्राचीनम् (सधस्थं) अन्तरिक्षं (प्रियं) प्रेमाश्रयं (आसदत्) आश्रयति, स परमात्मा (वाजी) बलस्वरूपः (विचक्षणः) सर्वज्ञः (नृभिः, धूतः) भक्तैरुपासितः (आपृच्छ्यम्) जिज्ञासुं (धरुणं) धारणावन्तं च यजमानं (अर्षति) प्राप्नोति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (दुहानः) सबको परिपूर्ण करनेवाला (ऊधः) सबका अधिकरणस्वरूप परमात्मा (मधु) आनन्दस्वरूप (प्रत्नं) प्राचीन (सधस्थम्) अन्तरिक्ष स्थान को (प्रियम्) जो प्रिय है, उसको (आसदत्) आश्रय करता है। वह परमात्मा (वाजी) जो बलस्वरूप (विचक्षणः) विलक्षण बुद्धिवाला (नृभिः, धूतः) उपासकों से उपासना किया हुआ (धरुणम्) धारणावाले (आपृच्छ्यम्) जिज्ञासु=यजमान को (अर्षति) प्राप्त होता है ॥५॥

    भावार्थ

    जो पुरुष धारणा-ध्यानादि साधनों से सम्पन्न हैं, वे ही उस निराकार ज्योति के ज्ञान के पात्र बन सकते हैं, अन्य नहीं ॥५॥

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    विषय

    प्रत्नं सधस्थम् आसदत्

    पदार्थ

    (ऊधः दिव्यं प्रियं मधु) = वेद धेनु के ज्ञान दुग्धाधार से दिव्य प्रीति जनक सारभूत उत्कृष्ट ज्ञानदुग्ध का दोहन करता हुआ यह सोम (प्रत्नम्) = उस सनातन (सधस्थम्) = सारे विश्व की सहस्थिति के स्थानभूत प्रभु को (आसदत्) = प्राप्त करता है उस प्रभु में आसीन होता है जो (आपृच्छ्यम्) = सब के जिज्ञासा का विषय बनते हैं और (धरुणम्) = सबका धारण करनेवाले हैं। सोम बुद्धि को सूक्ष्म बनाके हमें प्रभु का दर्शन कराता है। यह (वाजी) = शक्ति को प्राप्त करानेवाला सोम (अर्षति) = शरीर में गतिवाला होता है। (नृभिः धूतः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले लोगों से यह कम्पित करके निर्मल किया जाता है । वासनाओं को कम्पित करके दूर करने से यह सोम निर्मल बना रहता है । (विचक्षणः) = यह विशेषेण सब का द्रष्टा होता है । सोम हमारी नीरोगता आदि का ध्यान करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से हम ज्ञान धेनु से दिव्य प्रिय सारभूत ज्ञानदुग्ध का दोहन करते हैं, प्रभु में आसीन होते हैं, शक्तिशाली व नीरोग बनते हैं ।

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    विषय

    उसका उत्तम पद प्राप्त करते हुए सुपरिक्षित होना।

    भावार्थ

    (दिव्यम् ऊधः) आकाशस्थ ऊधस् अर्थात् मेघ से (मधु दुहानः) जल का दोहन कराने वाले (वाजी) वेगवान् वायु के तुल्य ज्ञानी और बलवान् पुरुष (दिव्यम्) श्रेष्ठ (प्रियम्) सर्वप्रिय (मधु दुहानः) मधु अर्थात् मधुर वचन और अन्न को (दिव्यं ऊधः) भूमि के जलसिंचित स्थान से कृषकवत् प्राप्त करता हुआ, (प्रत्नम् सधस्थम्) श्रेष्ठ पद को (आ असदत्) प्राप्त करता है, और फिर वह (आ-पृच्छ्यम्) सबके पूछने योग्य, सर्वादरणीय, (धरुणं) राष्ट्र-धारक पद को (अर्षति) प्राप्त करता है। वह (वि-चक्षणः) विशेष द्रष्टा अध्यक्ष हो, (नृभिः) उत्तम पुरुषों द्वारा (धूतः) कम्पित और सुपरीक्षित हो। इति द्वादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सप्तर्षय ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ६, ९, १४, २१ विराड् बृहती। २, ५ भुरिग् बृहती। ८,१०, १२, १३, १९, २५ बृहती। २३ पादनिचृद् बृहती। ३, १६ पिपीलिका मध्या गायत्री। ७, ११,१८,२०,२४,२६ निचृत् पंक्तिः॥ १५, २२ पंक्तिः॥ षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Giver of fulfilment, treasure trove of life’s sustaining milk, yielding celestial dear honey sweets of living strength and joy, pervasive in its eternal universal loved seat, all conqueror all watching and knowing, when moved by meditative celebrants, Soma radiates and vibrates in the faithful heart of earnest seekers.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पुरुष धारणा ध्यान इत्यादी साधनांनी संपन्न आहेत तेच त्या निराकार ज्योतीच्या ज्ञानाचे पात्र बनू शकतात, इतर नाही. ॥५॥

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