ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 13
आ ह॑र्य॒तो अर्जु॑ने॒ अत्के॑ अव्यत प्रि॒यः सू॒नुर्न मर्ज्य॑: । तमीं॑ हिन्वन्त्य॒पसो॒ यथा॒ रथं॑ न॒दीष्वा गभ॑स्त्योः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ह॒र्य॒तः । अर्जु॑ने । अत्के॑ । अ॒व्य॒त॒ । प्रि॒यः । सू॒नुः । न । मर्ज्यः॑ । तम् । ई॒म् । हि॒न्व॒न्ति॒ । अ॒पसः॑ । यथा॑ । रथ॑म् । न॒दीषु॑ । आ । गभ॑स्त्योः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ हर्यतो अर्जुने अत्के अव्यत प्रियः सूनुर्न मर्ज्य: । तमीं हिन्वन्त्यपसो यथा रथं नदीष्वा गभस्त्योः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । हर्यतः । अर्जुने । अत्के । अव्यत । प्रियः । सूनुः । न । मर्ज्यः । तम् । ईम् । हिन्वन्ति । अपसः । यथा । रथम् । नदीषु । आ । गभस्त्योः ॥ ९.१०७.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 13
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अर्जुने) कर्मणामर्जनविषयः (अत्के) यो निरूप्यते (हर्यतः) सर्वप्रियः परमात्मा (अव्यत) अस्मान् रक्षति (न) यथा (सूनुः) सन्ततिः (मर्ज्यः) मार्जनयोग्या भवति एवं (प्रियः) सर्वप्रियः परमात्मापि सन्ततिस्थानीयं मां रक्षति (तमीं) तं च (अपसः) कर्माणि (हिन्वन्ति) प्रेरयन्ति (यथा) यथा च (गभस्त्योः) बलयोः समक्षं (रथम्) वेगं (नदीषु) सङ्ग्रामेषु प्रेरयन्ति, एवं रथरूपजीवं कर्मरूपसङ्ग्रामे परमात्मा प्रेरयति ॥१३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अर्जुने) कर्मों के अर्जनविषय में (अत्के) जो निरूपण किया जाता है, वह (हर्यतः) सर्वप्रिय परमात्मा (अव्यत) हमारी रक्षा करता है, (न) जैसे (सूनुः) सन्तति (मर्ज्यः) मार्जन करने योग्य होती है, इसी प्रकार (प्रियः) सर्वप्रिय परमात्मा सन्ततिस्थानीय हम लोगों की रक्षा करता है। (तमीम्) उक्त परमात्मा की (अपसः) कर्म (हिन्वन्ति) प्रेरणा करते हैं, (यथा) जिस प्रकार (गभस्त्योः) बल के समक्ष (रथम्) वेग को (नदीषु) संग्रामों में प्रेरणा करते हैं, इसी प्रकार रथरूप जीव को कर्मरूप संग्राम के अभिमुख परमात्मा प्रेरणा करता है ॥१३॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव यह है कि संचित कर्म, प्रारब्ध और क्रियमाण इन तीनों प्रकार के कर्मों का ज्ञाता एकमात्र परमात्मा ही है ॥१३॥
विषय
अर्जुने अत्के
पदार्थ
(हर्यतः) = यह कान्त सोम (अर्जुने) = श्वेतवर्ण वाले, अर्थात् शुद्ध जीवनवाले (अत्के) = निरन्तर क्रियाशील पुरुष में (आ अव्यत) = सर्वतः संवृत व रक्षित किया जाता है। शुद्ध क्रियाशील जीवन सोमरक्षण की अनुकूलता वाला है। (प्रियः) = यह प्रीति का कारण होता है। (सूनुः न) = एक बालक के समान यह (मर्ज्य:) = शोधनीय है। जैसे एक बालक को माता शुद्ध करती है, इसी प्रकार यह सोम हमारे से शुद्ध करने योग्य है । (तम्) = उस सोम को (ईम्) = निश्चय से (अपस:) = क्रियाशील लोग (यथा रथं) = [रक्षस्य योग्यम्] शरीररथ के ही यह योग्य है ऐसा मानकर नदीषु शरीरस्थ नाड़ियों में तथा (गभस्त्योः) = भुजाओं में (आहिन्वन्ति) = समन्तात् प्रेरित करते हैं । रुधिर में व्याप्त होकर यह सोम शरीरस्थ नाड़ियों में प्रवाहित होता है और क्रियाशीलता को उत्पन्न करता हुआ भुजाओं में गतिवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण वही कर सकता है जो कि शुद्ध क्रियाशील जीवन का यापन करता है । क्रियाशील पुरुष ही सोम को शरीर में प्रेरित कर पाते हैं।
विषय
रथ के तुल्य रसवान् प्रिय आत्मा।
भावार्थ
वह आत्मा (सूनुः नः प्रियः) पुत्र के समान प्यारा (मर्ज्यः) झाड़ पोंछ कर वा स्नानादि द्वारा शुद्ध करने योग्य (सूनुः) देहादि का प्रेरक, (प्रियः) अतिप्रिय, (हर्यतः) कान्तिमान्, (अर्जुने अत्के आ अव्यत) शुद्ध कान्तियुक्त रूप में प्रकट होता है। (अपसः) कार्यकुशल जन (यथा रथं हिन्वन्ति) जिस प्रकार रथ को वेग से चलाते हैं, उसी प्रकार वे (रथं) रसस्वरूप (तम् ईम् हिन्वन्ति) उसकी भी उपासना करते हैं उसी को (गभस्त्योः) प्राण अपान के आश्रय (नदीषु) नाड़ियों में (हिन्वति) प्रेरित करते, उसी को खोजते और उसी का अभ्यास करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सप्तर्षय ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ६, ९, १४, २१ विराड् बृहती। २, ५ भुरिग् बृहती। ८,१०, १२, १३, १९, २५ बृहती। २३ पादनिचृद् बृहती। ३, १६ पिपीलिका मध्या गायत्री। ७, ११,१८,२०,२४,२६ निचृत् पंक्तिः॥ १५, २२ पंक्तिः॥ षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Dear, loved and fascinating, Soma emerges in transparent unsullied form, winsome worth refinement like a child’s and inspiring as a sanative. Devotees stimulate it with holy karma, a thing beautiful and inspiring, and let it join and flow in the streams of thought and action between their intellect and emotion and their prana and apana energies.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्राचा भाव हा आहे की संचित कर्म, प्रारब्ध व क्रियमाण या तीन प्रकारच्या कर्मांचा ज्ञाता एकमेव परमात्माच आहे. ॥१३॥
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