ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 12
प्र सो॑म दे॒ववी॑तये॒ सिन्धु॒र्न पि॑प्ये॒ अर्ण॑सा । अं॒शोः पय॑सा मदि॒रो न जागृ॑वि॒रच्छा॒ कोशं॑ मधु॒श्चुत॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सो॒म॒ । दे॒वऽवी॑तये । सिन्धुः॑ । न । पि॒प्ये॒ । अर्ण॑सा । अं॒शोः । पय॑सा । म॒दि॒रः । न । जागृ॑विः । अच्छ॑ । कोश॑म् । म॒धु॒ऽश्चुत॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सोम देववीतये सिन्धुर्न पिप्ये अर्णसा । अंशोः पयसा मदिरो न जागृविरच्छा कोशं मधुश्चुतम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सोम । देवऽवीतये । सिन्धुः । न । पिप्ये । अर्णसा । अंशोः । पयसा । मदिरः । न । जागृविः । अच्छ । कोशम् । मधुऽश्चुतम् ॥ ९.१०७.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 12
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे परमात्मन् ! भवान् (देववीतये) विदुषां तृप्तये (अर्णसा) जलेन (सिन्धुः, न) सिन्धुरिव (प्रपिप्ये) वर्धते (अंशोः) जीवात्मनः (पयसा) अभ्युदयेन (मदिरः) आह्लादकानन्दः (न) यथा (मधुश्चुतम्, कोशं) आनन्दकोशमन्तःकरणं (अच्छ) प्राप्नोति, एवं हि (जागृविः) चैतन्यस्वरूपः परमात्मा स्वोपासकतृप्तये जीवान्तःकरणमानन्दस्रोतः करोति ॥१२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! आप (देववीतये) विद्वानों की तृप्ति के लिये (अर्णसा) जल से (सिन्धुः) सिन्धु के (न) समान (प्रपिप्ये) वृद्धि को प्राप्त होते हैं, (अंशोः) जीवात्मा के (पयसा) अभ्युदय से (मदिरः) आह्लादक आनन्द (न) जैसे (मधुश्चुतम्, कोशम्) आनन्द के कोश अन्तःकरण को (अच्छ) प्राप्त होता है, इसी प्रकार (जागृविः) चैतन्यस्वरूप परमात्मा उपासकों की तृप्ति के लिये जीव के अन्तःकरण को आनन्द का स्रोत बनाता है ॥१२॥
भावार्थ
परमात्मा सर्वव्यापक है, उसका आनन्द यद्यपि सर्वत्र परिपूर्ण है, तथापि उसको चित्त की निर्मलता द्वारा उपलब्ध करनेवाले उपासक प्राप्त कर सकते हैं, अन्य नहीं ॥१२॥
विषय
मदिरो न जागृविः
पदार्थ
हे (सोम) = वीर्य ! (देववीतये) = दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिये तू (अर्णसा) = ज्ञानजल के द्वारा (प्रपिप्ये) = आप्यायित किया जाता है, (न) = जैसे कि (सिन्धुः) = समुद्र नदियों के जल से । वस्तुतः ज्ञान प्राप्ति में लगे रहने से सोम के रक्षण का सम्भव होता है, और रक्षित सोम हमारे में दिव्य गुणों का वर्धन करता है। (अंशोः) = ज्ञानरश्मियों के (पयसा) = आप्यायन से (मदिरः न) = अत्यन्त उल्लासयुक्त सा यह सोम (जागृविः) = सदा जागरूक होता है, यह हमारे पर रोग आदि का आक्रमण नहीं होने देता । यह हमें (मधुश्चतं कोशं अच्छा) = मधु को टपकानेवाले आनन्दमय कोश की ओर ले जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञान प्राप्ति में लगे रहने से शरीर में आप्यायित हुआ हुआ सोम दिव्य गुणों का वर्धन करता है । यह उल्लास को पैदा करता है, सदा जागरूक पहरेदार होकर हमें रोगाक्रान्त नहीं होने देता। आनन्दमय कोश की ओर हमें ले चलता है ।
विषय
सर्व-प्रेरक पूर्ण प्रभु।
भावार्थ
(अर्णसा सिंधुः न) जल से समुद्र के समान (देव-वीतये) देवों, विद्वानों और सूर्यादि लोकों को व्यापने और प्रकाशित करने के लिये हे (सोम) सर्वप्रेरक प्रभो ! तू (अर्णसा प्र पिप्ये) महान् ऐश्वर्य से परिपूर्ण है। (अंशोः पयसा मंदिरः न) सोमलता के रस से जिस प्रकार हर्षदायक दुग्धादि से युक्त होकर पात्र की ओर आता है, उसी प्रकार तू भी (जागृविः) सदा जागरण करता हुआ, जाग्रत् रूप होकर (अंशोः पयसा) व्यापक प्रभु के दिव्य रस से (मदिरः) अति आनन्दप्रद होकर (मधु-श्चुतम् कोशम्) आनन्द रस के देने वाले आनन्दमय कोश को (अच्छ) प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सप्तर्षय ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ६, ९, १४, २१ विराड् बृहती। २, ५ भुरिग् बृहती। ८,१०, १२, १३, १९, २५ बृहती। २३ पादनिचृद् बृहती। ३, १६ पिपीलिका मध्या गायत्री। ७, ११,१८,२०,२४,२६ निचृत् पंक्तिः॥ १५, २२ पंक्तिः॥ षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, be full with the liquid spirit of joy like the sea which is full with the flood of streams and rivers, and, like the very spirit of ecstasy overflowing with delicious exuberance of light divine, ever awake, flow into the devotee’s heart blest with the honeyed joy of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा सर्वव्यापक आहे. त्याचा आनंद जरी सर्वत्र परिपूर्ण आहे. तरी त्याला चित्ताच्या निर्मलतेद्वारे उपलब्ध करणारे उपासक प्राप्त करू शकतात, इतर नव्हे. ॥१२॥
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