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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 107 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 24
    ऋषिः - सप्तर्षयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स तू प॑वस्व॒ परि॒ पार्थि॑वं॒ रजो॑ दि॒व्या च॑ सोम॒ धर्म॑भिः । त्वां विप्रा॑सो म॒तिभि॑र्विचक्षण शु॒भ्रं हि॑न्वन्ति धी॒तिभि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । तु । प॒व॒स्व॒ । परि॑ । पार्थि॑वम् । रजः॑ । दि॒व्या । च॒ । सो॒म॒ । धर्म॑ऽभिः । त्वाम् । विप्रा॑सः । म॒तिऽभिः॑ । वि॒ऽच॒क्ष॒ण॒ । शु॒भ्रम् । हि॒न्व॒न्ति॒ । धी॒तिऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स तू पवस्व परि पार्थिवं रजो दिव्या च सोम धर्मभिः । त्वां विप्रासो मतिभिर्विचक्षण शुभ्रं हिन्वन्ति धीतिभि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । तु । पवस्व । परि । पार्थिवम् । रजः । दिव्या । च । सोम । धर्मऽभिः । त्वाम् । विप्रासः । मतिऽभिः । विऽचक्षण । शुभ्रम् । हिन्वन्ति । धीतिऽभिः ॥ ९.१०७.२४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 24
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पार्थिवम्, रजः) पृथ्वीपरमाणून् (दिव्या, च) द्युलोकस्थान्यभूतपरमाणूंश्च (सः, तु) सः त्वं (परिपवस्व) शोधयतु (सोम) हे सर्वोत्पादक ! (धर्मभिः) तव गुणैः (त्वां) भवन्तं (विप्रासः) मेधाविनः (मतिभिः) स्वबुद्धिभिः साक्षात्कुर्वन्ति (विचक्षण) हे सर्वज्ञ ! (शुभ्रं) सर्वोपरि शुद्धं भवन्तं (धीतिभिः) कर्मयोगशक्तिभिः कर्मयोगिनः (हिन्वन्ति) प्रेरयन्ति ॥२४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पार्थिवम्, रजः) पृथिवी के परमाणु (च) और (दिव्या) द्युलोकस्थ अन्य भूतों के परमाणुओं को (सः, तु) वह आप (परि, पवस्व) भले प्रकार पवित्र करें (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (धर्मभिः) तुम्हारे गुणों द्वारा (त्वाम्) तुम्हारा (विप्रासः) मेधावी लोग (मतिभिः) अपनी बुद्धि से साक्षात्कार करते हैं, (विचक्षण) हे सर्वज्ञ ! (शुभ्रम्) सर्वोपरि शुद्धस्वरूप आपको (धीतिभिः) कर्मयोग की शक्तियों द्वारा कर्मयोगी लोग (हिन्वन्ति) प्रेरणा करते हैं ॥२४॥

    भावार्थ

    इस ब्रह्माण्ड के परमाणुरूप सूक्ष्म कारण को एकमात्र परमात्मा ही धारण करता तथा पवित्र करता है, इसलिये हे भगवन् ! हममें भी वह शक्ति प्रदान करें कि हम कर्मयोगी बनकर ऐश्वर्यशाली हों ॥२४॥

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    विषय

    मतिभिः - धीतिभिः

    पदार्थ

    हे (सोम) = वीर्य! (सः) = वह (तू) = तू अवश्य (धर्मभिः) = अपनी धारणशक्तियों के साथ (पार्थिवं रजः) = इस शरीर रूप पार्थिव लोक को (च) = और (दिव्या) [रज:] = मस्तिष्क सम्बन्धी द्युलोक को (परिपवस्व) = प्राप्त हो । तूने ही शरीर व मस्तिष्क का धारण करना है। सो हे (विचक्षण) = विद्रष्टः ! विशेषरूप से इन लोकों का धारण करनेवाले सोम ! (शुभ्रम्) = वासनाओं से मलिन न हुए-हुए उज्ज्वल (त्वाम्) = तुझको (विप्रासः) = अपना विशेष रूप से पूरण करनेवाले ज्ञानी लोग (मतिभिः) = ज्ञान की वाणियों से प्रथम मनन पूर्वक की गई स्तुतियों से तथा (धीतिभिः) = धर्मों से हिन्वन्ति शरीर के अन्दर ही प्रेरित करते हैं और बढ़ाते हैं । इस प्रकार इनका यह स्वाध्याय व स्तवन तथा यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्ति सोमरक्षण का साधन हो जाती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम शरीर व मस्तिष्क का रक्षक बनता है। इसका रक्षण स्वाध्याय व स्तवन तथा यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहने से होता है ।

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    विषय

    सुखप्रद प्रभु और उसकी ज्ञान-वाणियों से स्तुति।

    भावार्थ

    हे (विचक्षण) विशेष ज्ञान के देखने हारे ! तू (पार्थिवं रजः परि) पृथिवी लोक के प्रति, (धर्मभिः) धारक बलों से (दिव्या) पृथिवी के प्रति आकाशीय बलों को मेघवत् इस देह के प्रति दिव्य सुखों को (परि पवस्व) प्राप्त करा। (त्वां शुभ्रम्) तुझ शुद्ध चेतन को लक्ष्य कर (विप्रासः) विद्वान् जन (मतिभिः धीतिभिः) ज्ञान वाणियों और कर्मों से (त्वां हिन्वन्ति) तेरी स्तुति करते तेरी, महिमा बढ़ाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सप्तर्षय ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ६, ९, १४, २१ विराड् बृहती। २, ५ भुरिग् बृहती। ८,१०, १२, १३, १९, २५ बृहती। २३ पादनिचृद् बृहती। ३, १६ पिपीलिका मध्या गायत्री। ७, ११,१८,२०,२४,२६ निचृत् पंक्तिः॥ १५, २२ पंक्तिः॥ षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, with all your power, laws and virtues, flow purifying and inspiring all that is earthly, heavenly and in the middle regions of the universe. O Spirit all knowing and watching, bright and pure, the sages with their thoughts and actions invoke and exalt you for inspiration and enlightenment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या ब्रह्मांडाच्या परमाणूरूप सूक्ष्म कारणाला एकमेव परमात्माच धारण करतो व पवित्र करतो त्यासाठी हे भगवान! आम्हाला ही ती शक्ती प्रदान कर. आम्ही कर्मयोगी बनून ऐश्वर्यवान बनावे. ॥२४॥

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