ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 19
तवा॒हं सो॑म रारण स॒ख्य इ॑न्दो दि॒वेदि॑वे । पु॒रूणि॑ बभ्रो॒ नि च॑रन्ति॒ मामव॑ परि॒धीँरति॒ ताँ इ॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । अ॒हम् । सो॒म॒ । र॒र॒ण॒ । स॒ख्ये । इ॒न्दो॒ इति॑ । दि॒वेऽदि॑वे । पु॒रूणि॑ । ब॒भ्रो॒ इति॑ । नि । च॒र॒न्ति॒ । माम् । अव॑ । प॒रि॒ऽधीन् । अति॑ । तान् । इ॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तवाहं सोम रारण सख्य इन्दो दिवेदिवे । पुरूणि बभ्रो नि चरन्ति मामव परिधीँरति ताँ इहि ॥
स्वर रहित पद पाठतव । अहम् । सोम । ररण । सख्ये । इन्दो इति । दिवेऽदिवे । पुरूणि । बभ्रो इति । नि । चरन्ति । माम् । अव । परिऽधीन् । अति । तान् । इहि ॥ ९.१०७.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 19
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप (सोम) सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (दिवेदिवे) प्रत्यहं (तव, सख्ये) तव मैत्रीविषये (अहम्, रारण) त्वां स्मरामि (बभ्रो) हे सर्वाधार ! (पुरूणि) बहूनि (निचरन्ति) नीचकर्माणि कुर्वन्ति ये राक्षसाः (तान्, परिधीन्) तान् राक्षसान् (अतीहि) अभिभावय (अव) मां च रक्ष ॥१९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप (सोम) सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (दिवेदिवे) प्रतिदिन (तव, सख्ये) तुम्हारी मैत्री में (अहं, रारण) मैं सदैव तुम्हारा स्मरण करता हूँ (बभ्रो) हे सर्वाधिकरण परमात्मन् ! (पुरूणि) बहुत (निचरन्ति) नीचभावों से जो राक्षस (माम्) मुझको पीड़ा देते हैं (तान्, परिधीन्) उन राक्षसों को (अतीहि) अतिक्रमण करके मेरी (अव) रक्षा करो ॥१९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में यह प्रार्थना की गई है कि हे परमात्मन् ! वैदिक कर्मानुष्ठान में विघ्न करनेवाले मनुष्यों से हमारी रक्षा करें, “रक्षत्यस्मादिति रक्षः, रक्ष एव राक्षसः” यहाँ राक्षस शब्द से विघ्नकारी मनुष्यों का ग्रहण है, किसी जातिविशेष का नहीं ॥१९॥
विषय
चारों ओर से घेरनेवाले राक्षसों का विनाश
पदार्थ
हे (सोम) = वीर्य! (अहम्) = मैं (तव) = तेरे (सख्ये) = मित्रता में (रारण) = आनन्द का अनुभव करता हूँ । हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! (दिवे दिवे) = प्रतिदिन यह सख्य व आनन्द बढ़ता ही चलता है। हे (बभ्रो) = हमारा धारण करनेवाले सोम ! (माम्) = मुझे (पुरूणि) = बहुत राक्षसी भाव (नि अव चरन्ति) = नीचे की ओर ले जाते हैं। (तान् परिधीन्) = उन चारों ओर से घेरा डालनेवाले इन राक्षसी भावों को (अति इहि) = तू पार करनेवाला हो। इन राक्षसी भावों से तू ही मुझे ऊपर उठानेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम के रक्षण में ही आनन्द है, यही हमें राक्षसी भावों से पार ले जाता है।
विषय
प्रभु से इन्द्रिय रूप शत्रुओं द्वारा गिरने से बचने की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन् ! हे (सोम) मेरे आत्मा के तुल्य प्रिय ! (दिवे दिवे) दिनो दिन (अहम् तव सख्ये) मैं तेरे मित्र भाव में (ररण) अति प्रसन्न होता हूँ। (पुरूणि) मेरी इन्द्रियां ही (माम् नि चरन्ति) मेरा तिरस्कार करती हैं, (माम् अव चरन्ति) मुझे नीचा करके नाना भोग भोगती हैं, (परिधीन् तान्) चारों ओर से घेरे खड़े इन शत्रुओं को (अति इहि) अतिक्रमण करके तू उनको पराजित कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सप्तर्षय ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ६, ९, १४, २१ विराड् बृहती। २, ५ भुरिग् बृहती। ८,१०, १२, १३, १९, २५ बृहती। २३ पादनिचृद् बृहती। ३, १६ पिपीलिका मध्या गायत्री। ७, ११,१८,२०,२४,२६ निचृत् पंक्तिः॥ १५, २२ पंक्तिः॥ षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, light of life and universal joy of existence, I rejoice in your friendly company day in and day out. O mighty bearer sustainer of the universe, a host of negativities surround me, pray break through their bounds and come and save me.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात ही प्रार्थना केलेली आहे की, हे परमात्मा! वैदिक कर्मानुष्ठानामध्ये विघ्न घालणाऱ्या माणसाकडून आमचे रक्षण करावे. ‘‘रक्षत्यस्मादिति रक्ष:, रक्ष एव राक्षस:’’ येथे राक्षस शब्दाने विघ्नकारी माणसांचे ग्रहण आहे. एखाद्या जाति विशेषाचे नाही. ॥१९॥
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