ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 14
अ॒भि सोमा॑स आ॒यव॒: पव॑न्ते॒ मद्यं॒ मद॑म् । स॒मु॒द्रस्याधि॑ वि॒ष्टपि॑ मनी॒षिणो॑ मत्स॒रास॑: स्व॒र्विद॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । सोमा॑सः । आ॒यवः॑ । पव॑न्ते । मद्य॑म् । मद॑म् । स॒मु॒द्रस्य॑ । अधि॑ । वि॒ष्टपि॑ । म॒नी॒षिणः॑ । म॒त्स॒रासः॑ । स्वः॒ऽविदः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि सोमास आयव: पवन्ते मद्यं मदम् । समुद्रस्याधि विष्टपि मनीषिणो मत्सरास: स्वर्विद: ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । सोमासः । आयवः । पवन्ते । मद्यम् । मदम् । समुद्रस्य । अधि । विष्टपि । मनीषिणः । मत्सरासः । स्वःऽविदः ॥ ९.१०७.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 14
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(आयवः) गतिशीलं (सोमासः, अभि) परमात्मानमभि (मद्यं) आह्लादाय (मदम्) आनन्दाय च (पवन्ते) पवित्रयन्ति (समुद्रस्य) अन्तरिक्षस्य (अधिविष्टपि) उपरि (मनीषिणः) मननशीलाः (मत्सरासः) ब्रह्मानन्दस्य पातारः (स्वर्विदः) विज्ञानिनः तस्य परमात्मनो रसं पिबन्ति ॥१४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(आयवः) ज्ञानशील विद्वान् (सोमासः) सर्वोत्पादक परमात्मा के (अभि) अभिमुख (मद्यम्) आह्लाद तथा (मदम्) आनन्द के लिये (पवन्ते) आत्मा को पवित्र करते हैं, (समुद्रस्य) अन्तरिक्ष देश के (अधिविष्टपि) ऊपर (मनीषिणः) मननशील (मत्सरासः) ब्रह्मानन्द का पान करनेवाले (स्वर्विदः) विज्ञानी लोग परमात्मा के रस को पान करते हैं ॥१४॥
भावार्थ
ज्ञानी और विज्ञानी लोग ही अपने जप तप आदि संयमों द्वारा परमात्मा के आनन्द को उपलब्ध करते हैं और वही अधिकारी होते हैं, अन्य नहीं ॥१४॥
विषय
मनीषिणो मत्सरासः स्वर्विदः
पदार्थ
(सोमासः) = शरीरस्थ सोमकण (आयवः) = [इ गतौ] हमारे जीवनों को क्रियाशील बनानेवाले हैं । ये (मद्यम्) = अत्यन्त उल्लासजनक (मदम्) = हर्ष को (अभिपवन्ते) = प्राप्त कराते हैं । (समुद्रस्य) = [स+मुद्] उस आनन्दमय प्रभु के (अधिविष्टपि) = उच्च स्थान में ये हमें पहुँचाते हैं । सोमरक्षण द्वारा ही शारीरिक नीरोगता आदि को प्राप्त करके ऐहिक आनन्द मिलता है और मानस नैर्मल्य के द्वारा प्रभुदर्शन के आनन्द का भी यही साधन बनता है। ये सोम (मनीषिणः) = मनीषा को देनेवाले हैं, मन का शासन करनेवाली बुद्धि को प्राप्त कराते हैं । (मत्सरासः) = हृदयों में आनन्द का संचार करते हैं। तथा (स्वर्विदः) = उस स्वयं प्रकाश प्रभु को प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम क्रियाशीलता व उल्लास का जनक होता हुआ 'बुद्धि व मन' को उत्कृष्ट बनाता है और प्रभु प्राप्ति का साधन बनता है ।
विषय
रस-सागर प्रभु की ओर विद्वानों का मार्ग।
भावार्थ
(समुद्रस्य विष्टपि) रसों के अपार सागर प्रभु परमेश्वर के, विना ताप के, परम शान्तिमय आश्रय में (अधि) रह कर (मनीषिणः) मन को सन्मार्ग में चलाने वाले, (मत्सरासः) रसों से परितृप्त, तृष्णादि से रहित, (स्वः-विदः) सुखमय प्रकाशस्वरूप प्रभु को जानने और जनाने हारे, (सोमासः) वीर्यवान् (आयवः) विद्वान् जन (मद्यम् मदम्) परम सुखकारी, अतिस्तुत्य, हर्षानन्दमय प्रभु को लक्ष्य कर (अभि पवन्ते) आगे बढ़ते हैं।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सप्तर्षय ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ६, ९, १४, २१ विराड् बृहती। २, ५ भुरिग् बृहती। ८,१०, १२, १३, १९, २५ बृहती। २३ पादनिचृद् बृहती। ३, १६ पिपीलिका मध्या गायत्री। ७, ११,१८,२०,२४,२६ निचृत् पंक्तिः॥ १५, २२ पंक्तिः॥ षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Intelligent and dedicated lovers of Soma refine and sublimate their pleasurable joy of the heart and emotion, direct it to divinity on top of the existential ocean of daily business and, thoughtful, ecstatic and divinely oriented, experience the heavenly ecstasy of Soma as in samadhi.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्ञानी व विज्ञानी लोकच आपल्या जप-तप इत्यादी संयमाद्वारे परमात्म्याचा आनंद उपलब्ध करतात व तेच अधिकारी बनतात, इतर नव्हे. ॥१४॥
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