ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 64/ मन्त्र 20
आ यद्योनिं॑ हिर॒ण्यय॑मा॒शुॠ॒तस्य॒ सीद॑ति । जहा॒त्यप्र॑चेतसः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । यत् । योनि॑म् । हि॒र॒ण्यय॑म् । आ॒शुः । ऋ॒तस्य॑ । सीद॑ति । जहा॑ति । अप्र॑ऽचेतसः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यद्योनिं हिरण्ययमाशुॠतस्य सीदति । जहात्यप्रचेतसः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । यत् । योनिम् । हिरण्ययम् । आशुः । ऋतस्य । सीदति । जहाति । अप्रऽचेतसः ॥ ९.६४.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 64; मन्त्र » 20
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 39; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 39; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्) यदा (आशुः) अन्त्यन्तगतिशीलो जगदीश्वरः (ऋतस्य हिरण्ययं योनिम्) हिरण्मयीं यज्ञवेदीं (आसीदति) प्राप्नोति तदा (अप्रचेतसः) असमाहितजनानामन्तःकरणानि (जहाति) त्यजति ॥२०॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(यत्) जब (आशुः) अतिवेग गतिशील परमात्मा (ऋतस्य हिरण्ययं योनिं) हिरण्मयी यज्ञवेदी को (आसीदति) प्राप्त होता है, तब (अप्रचेतसः) असमाहित लोगों के अन्तःकरणों को (जहाति) छोड़ देता है ॥२०॥
भावार्थ
तात्पर्य यह है कि ज्ञान से प्रकाशित अन्तःकरणों को परमात्मा अपनी शक्ति से विभूषित करता है, अज्ञानावृत अन्तःकरणों को नहीं, इसीलिये यहाँ “अप्रेचतसः जहाति” यह लिखा है। वास्तव में परमात्मा न किसी स्थान को छोड़ता है, न पकड़ता है ॥२०॥
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1151
ओ३म् आ यद्योनिं॑ हिर॒ण्यय॑मा॒शुॠ॒तस्य॒ सीद॑ति ।
जहा॒त्यप्र॑चेतसः ॥
अ॒भि वे॒ना अ॑नूष॒तेय॑क्षन्ति॒ प्रचे॑तसः ।
मज्ज॒न्त्यवि॑चेतसः ॥
ऋग्वेद 9/64/20, 9/64/21
मूर्खता में रहने वाले जन
दुराग्रह में चलते रहते हैं
ऋत-सत्य की भी परवाह कहाँ
व्यवहार बदलते रहते हैं
मूर्खता में रहने वाले जन
ज्ञानी की पहली निशानी है
ऋत-सत्य नियम पर चलते हैं
उत्तम फल पाते इस कारण
समृद्धि-सुखों में पलते हैं
लेकिन जो मूढ हैं ऋत से परे
वो दुख-कष्टों में डलते हैं
ऋत-सत्य की भी परवाह कहाँ
व्यवहार बदलते रहते हैं
मूर्खता में रहने वाले जन
पहचान यही बुद्धिमानों की
भगवान् की स्तुति में रहते हैं
देव-पूजा दान सङ्गति करण
से अन्न-ज्ञान-दान करते हैं
वो ग्रहण भलाई को करते
और दुर्गुण सर्वदा तजते हैं
ऋत-सत्य की भी परवाह कहाँ
व्यवहार बदलते रहते हैं
मूर्खता में रहने वाले जन
विद्वान् उचित-अनुचित जाने
और सत्य विवेचन करते हैं
गुण कर्म स्वभावों में कल्याण
करके भी दम नहीं भरते हैं
सुधी नाव को पार लगाते हैं
करें मूढ छेद, डूब मरते हैं
ऋत-सत्य की भी परवाह कहाँ
व्यवहार बदलते रहते हैं
मूर्खता में रहने वाले जन
दुराग्रह में चलते रहते हैं
ऋत-सत्य की भी परवाह कहाँ
व्यवहार बदलते रहते हैं
मूर्खता में रहने वाले जन
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :-- २९.९.२०२१ ६.४५सायं
राग :- मालगुंजी
गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर, ताल विलम्बित कहरवा 8 मात्रा
शीर्षक :- मूढामूढभेद 🎧भजन 728 वां👏🏽
*तर्ज :- *
738-00139
दुराग्रह = हठ, बात में अड़ना
विवेचन = सच और झूठ का निर्णय करना
सुधी = बुद्धिमान
मूढ़ = मूर्ख
अमूढ = चतुर, सयाना
दम भरना = विश्वासपात्र होना
संगतिकरण = अत्यंत प्रीति एवं भक्ति के साथ मिलकर सत्पुरुषों की सत्संगति, आराधना करना संगति करण कहलाता है
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
मूढामूढभेद
इन दो मन्त्रों में ज्ञानी अज्ञानी की निशानी बताई गई है। वेद के सीधे-साधे हृदय तक पहुंचने वाले शब्द कितनी गंभीर बात का ऐसा सरल विवेचन करते हैं।
ज्ञानी की पहली निशानी यह है कि वह ऋत का, सत्य का, सृष्टि नियम का, अनुगामी होता है। सृष्टि नियम के अनुगमन का फल उसे उत्तम अवस्था मिलती है। मूढ़(मूर्ख) लोग सृष्टि नियम को जानते ही नहीं, ना उसे जाने का यत्न करते हैं ,जतलाने पर उसे ग्रहण करने की चेष्टा भी नहीं करते ,अतः वह इनका संग छोड़ देता है।
बुद्धिमान की दूसरी पहचान यह है कि वह भगवान की स्तुति करता है। ज्ञानी जन सदा यज्ञ करते हैं। लोगों को ज्ञान, दान अनादि से तृप्त करते हैं,श्रेष्ठ पुरुषों की संगति करते हैं प्रभु- पूजा करते हैं। ज्ञान का फल भी यही है कि वह भले बुरे की पहचान करके भले का ग्रहण और बुरे का त्याग करें ।जैसा कि वेद में कहा है (चित्तिमचितिं चिनवद् वि विद्वान) ऋग्वेद ४.२.११
विद्वान ज्ञान और अज्ञान की विशेष पहचान करें ,अर्थात् पंडित का कर्तव्य है कि उचित-अनुचित का यथा योग्य विवेचन करें।जिसके द्वारा वह अपना तथा दूसरों का कल्याण कर सकेगा। मूर्खों में यह गुण नहीं होता अतः वे 'मज्जन्त्यविचेतस:' मूढ़ अचेत डूब मरते हैं।
ज्ञानी ही भवसागर से तरते हैं क्योंकि उन्होंने तारने वालों से सख्य किया है। तरने के साधनों को संभाल रखा है।
मूर्ख जहाज की पेंदी में छेद कर रहा है, डूबेगा नहीं तो क्या होगा?
🕉🧘♂️ईश भक्ति भजन
भगवान् ग्रुप द्वारा🌹🙏
🕉🧘♂️वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं🌹 🙏
विषय
जहाति अप्रचेतसः
पदार्थ
[१] यह (आशुः) = शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाला सोम (यद्) = जब (ऋतस्य) = ऋत के, सत्य के (हिरण्ययम्) = ज्योतिर्मय (योनिम्) = उत्पत्ति-स्थान में (आ सीदति) = सर्वथा स्थित होता है तो (अप्रचेतसः) = नासमझों को (जहाति) = यह छोड़ जाता है । [२] समझदार पुरुषों से ज्ञान-यज्ञ आदि में लगे रहने के द्वारा पवित्र किया जाता हुआ यह सोम उन्हें प्रभु को प्राप्त कराता है। नामसझ इस सोम के महत्त्व को न समझने के कारण वासनाओं में इसका विनाश कर बैठते हैं। |
भावार्थ
भावार्थ - समझदार पुरुष सोमरक्षण से प्रभु को प्राप्त करते हैं । नासमझ शारीरिक भोगों में इसका व्यय कर बैठते हैं।
विषय
ज्ञानी को प्रभु-पद-प्राप्ति के अवसर, में काम क्रोधादि का त्याग। राज्यपद प्राप्ति के काल में मूखों के त्याग का उपदेश।
भावार्थ
और (यत्) जब वह ज्ञानी, (आशुः) अप्रमादी होकर (हिरण्ययम्) अति हित और परम रमणीय (ऋतस्य योनिम् आ सीदति) परम सत्य सुख के आश्रयभूत प्रभु को प्राप्त कर लेता है तब वह सब (अप्रचेतसः) ज्ञानरहित काम, क्रोध, मोह आदि के भावों को (जहाति) छोड़ देता है। (२) इसी प्रकार जब विद्वान् ऋत, न्याय के तेजोयुक्त आसन पर विराजे तो वहां वह मूर्खों का त्याग करे। इत्येकोनचत्वारिशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ७, १२, १३, १५, १७, १९, २२, २४, २६ गायत्री। २, ५, ६, ८–११, १४, १६, २०, २३, २५, २९ निचृद् गायत्री। १८, २१, २७, २८ विराड् गायत्री। ३० यवमध्या गायत्री ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When the soul is established in the golden light of divinity which is the centre origin of the flow of existence, then without any delay it eliminates all junk of ignorance.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्ञानाने प्रकाशित अंत:करणांना परमात्मा आपल्या शक्तीने विभूषित करतो. अज्ञानी अंत:करणांना नाही. त्यासाठी येथे ‘अप्रेचतस: जहाति’ हे लिहिले आहे. वास्तविक परमात्मा कोणते स्थान सोडत नाही किंवा धरत नाही. ॥२०॥
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