ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 64/ मन्त्र 5
शु॒म्भमा॑ना ऋता॒युभि॑र्मृ॒ज्यमा॑ना॒ गभ॑स्त्योः । पव॑न्ते॒ वारे॑ अ॒व्यये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठशु॒म्भमा॑नाः । ऋ॒त॒युऽभिः॑ । मृ॒ज्यमा॑नाः । गभ॑स्त्योः । पव॑न्ते । वारे॑ । अ॒व्यये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शुम्भमाना ऋतायुभिर्मृज्यमाना गभस्त्योः । पवन्ते वारे अव्यये ॥
स्वर रहित पद पाठशुम्भमानाः । ऋतयुऽभिः । मृज्यमानाः । गभस्त्योः । पवन्ते । वारे । अव्यये ॥ ९.६४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 64; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(शुम्भमानाः) भूषणभूषकः (मृज्यमानाः) सर्वपवित्रकारी (गभस्त्योः) प्रकाशस्वरूपः (वारे) वरणीयपदार्थेषु (अव्यये) अव्ययरूपेण विराजमानः परमात्मा (ऋतायुभिः) सत्यप्रियैः उपासितः (पवन्ते) तान् पवित्रयति ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(शुम्भमानाः) सब भूषणों का भूषक (मृज्यमानाः) सबको शुद्ध करनेवाला (गभस्त्योः) प्रकाशस्वरूप (वारे) वरणीय पदार्थों में (अव्यये) अव्ययरूप से जो विराजमान है, ऐसा परमात्मा (ऋतायुभिः) सचाई को चाहनेवाले लोगों से उपासना किया हुआ परमात्मा (पवन्ते) उनको पवित्र करता है ॥५॥
भावार्थ
जो लोग सत्य के अभिलाषी हैं, उनको परमात्मा सदैव पवित्र करता है। क्योंकि परमात्मा भक्तों पर और सत्याभिलाषियों पर अपनी कृपा करके उनका उद्धार करता है ॥५॥
विषय
सोम का अलंकरण व शोधन
पदार्थ
[१] (ऋतायुभिः) = यज्ञ की कामनावाले पुरुषों से ये सोम (शुम्भमाना:) = अलंक्रियमाण होते हैं। यज्ञों में लगे रहने से, नियमपूर्वक उत्तम कर्मों में व्यापृत रहने से सोम शरीर में ही सुरक्षित रहता है और इसे अलंकृत करनेवाला बनता है । ये सोम (गभस्त्यो:) = बाहुवों में (मृज्यमानाः) = शुद्ध किये जाते हैं। अभ्युदय व निःश्रेयस के लिये किये जानेवाले प्रयत्नों में शुद्ध किये जाते हैं। जब हम इन प्रयत्नों में लगे रहते हैं तो विषय-वासनाओं की ओर झुकाव न होने से ये सोम पवित्र बने रहते हैं । [२] ये सोम (वारे) = विषय-वासनाओं का निवारण करनेवाले (अव्यये) = [अ-वि-अय] इधर-उधर न भटकनेवाले पुरुष में (पवन्ते) = प्राप्त होते हैं। सोम उसी में सुरक्षित रहते हैं जो कि अपनी चित्तवृत्ति को विषयों से रोककर इधर-उधर भटकने नहीं देता ।
भावार्थ
भावार्थ- हम ऋतायु बनकर सोम को शरीर में ही अलंकृत करें। अभ्युदय व निःश्रेयस प्राप्ति की क्रियाओं में लगे हुए इसे शुद्ध बनायें ।
विषय
शासकों और दीक्षित वा स्नातक पुरुषों के वेष आदि का श्लिष्ट वर्णन।
भावार्थ
(ऋतायुभिः शुम्भमानाः) सत्य ज्ञान, वेद, तेज और न्याय, अधिकार आदि की प्राप्तियों या उनको चाहने वाले वा विद्वान् पुरुषों द्वारा सुशोभित होकर और (गभस्त्योः मृज्यमानाः) बाहुओं से परिमार्जित बाहु बल से परीक्षित होकर (अव्यये) न व्यय होने वाले, स्थायी (वारे) वरणीय पद या अधिकार पर (पवन्ते) प्राप्त हों। वा विद्वान् जन आविक [भेड़ की ऊन के] आसनों पर विराजें वा आविकप्राय वेशो में शुशोभित हों। स्नातकों को भेड़ की ऊनों का दुशाला या चोला, भव्य वेश दिया जावे। इति षट् त्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ७, १२, १३, १५, १७, १९, २२, २४, २६ गायत्री। २, ५, ६, ८–११, १४, १६, २०, २३, २५, २९ निचृद् गायत्री। १८, २१, २७, २८ विराड् गायत्री। ३० यवमध्या गायत्री ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Blest and beatified by lovers of truth and divine law, seasoned and tempered by light of the sun and heat of fire, heroic men of the soma spirit of peace and prosperity work vibrant on choice positions in the imperishable order of divine existence.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक सत्याचे अभिलाषी आहेत त्यांना परमात्मा सदैव पवित्र करतो. कारण परमात्मा भक्तांवर व सत्याभिलाषींवर आपली कृपादृष्टी ठेवून त्यांचा उद्धार करतो. ॥५॥
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