ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 64/ मन्त्र 24
रसं॑ ते मि॒त्रो अ॑र्य॒मा पिब॑न्ति॒ वरु॑णः कवे । पव॑मानस्य म॒रुत॑: ॥
स्वर सहित पद पाठरस॑म् । ते॒ । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । पिब॑न्ति । वरु॑णः । क॒वे॒ । पव॑मानस्य । म॒रुतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रसं ते मित्रो अर्यमा पिबन्ति वरुणः कवे । पवमानस्य मरुत: ॥
स्वर रहित पद पाठरसम् । ते । मित्रः । अर्यमा । पिबन्ति । वरुणः । कवे । पवमानस्य । मरुतः ॥ ९.६४.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 64; मन्त्र » 24
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 40; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 40; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पवमानस्य) सकलपावकस्य भवतः (रसम्) रसं (मित्रः) समद्रष्टारः (वरुणः) विज्ञानादिभिर्गुणैः सृष्टेराच्छादका विद्वांसः (मरुतः) कर्मयोगिनः (ते कवे) सर्वज्ञस्य तव रसं (अर्यमा) न्यायकारिणः (पिबन्ति) पानं कुर्वन्ति ॥२४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पवमानस्य) सबको पवित्र करनेवाले जो आप हैं, ऐसे आपके (रसं) रस को (मित्रः) समदर्शी विद्वान् (वरुणः) विज्ञानादि गुणों से सृष्टि को आच्छादन करनेवाले (मरुतः) कर्मयोगिगण (ते कवे) तुम जो सर्वज्ञ हो, ऐसे आपके रस को (अर्यमा) न्यायकारी लोग (पिबन्ति) पान करते हैं ॥२४॥
भावार्थ
जो पुरुष कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगी है, वही उस परमात्मा के आनन्द को पान कर सकता है, अन्य नहीं। तात्पर्य यह है कि परमात्मा के समान परमात्मा का आनन्द भी सर्वत्र परिपूर्ण है, परन्तु विना उक्त उपदेश से वा यों कहो कि सर्वोपरि साधन के विना उसके आनन्द का कोई भी उपभोग नहीं कर सकता, इसीलिये यहाँ उक्त प्रकार के योगियों का कथन किया है कि उक्त योगी ही उसके आनन्द को भोगते हैं ॥२४॥
विषय
कौन सोम का पान करते हैं ?
पदार्थ
[१] हे (कवे) = क्रान्तप्रज्ञ हमारी बुद्धि को सूक्ष्म बनानेवाले सोम! (ते रसम्) = तेरे रस को, सार को (मित्रः) = सब के प्रति स्नेहवाला, (अर्यमा) = दान की वृत्तिवाला, (वरुणः) = द्वेष का निवारण करनेवाला (पिबन्ति) = पीता है । सोम का रक्षण 'मित्र, अर्यमा व वरुण' करते हैं। [२] हे सोम ! (पवमानस्य) = पवित्र करनेवाले तेरे रस को (मरुतः) = प्राणसाधना करनेवाले पुरुष पीते हैं । प्राणसाधना से ही सोम की शरीर में ऊर्ध्वगति होती है ।
भावार्थ
भावार्थ- 'मित्र, अर्यमा, वरुण व मरुत्' सोम का पान करते हैं।
विषय
विद्वान् के ज्ञान का और राज के वचन का सब श्रवण करें।
भावार्थ
हे (कवे) विद्वन् ! क्रान्तदर्शिन् ! (पवमानस्य) ज्ञानोपदेश करने वाले (मरुतः) बलवान् (ते रसं) तेरे ज्ञानोपदेश, आज्ञा वचन को (मित्रः) स्नेही (अर्यमा) शत्रु-नियन्ता न्यायकारी और (वरुणः) दुष्टों का वारक ये जन (पिबन्ति) रसपानवत् पान करते और उसका पालन करते हैं। (२) मुख्य राजा के नीचे उसकी आज्ञा को उसके मित्र वर्ग, न्यायविभाग का अध्यक्ष और पुलिस सेना का अध्यक्ष सब पालन करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ७, १२, १३, १५, १७, १९, २२, २४, २६ गायत्री। २, ५, ६, ८–११, १४, १६, २०, २३, २५, २९ निचृद् गायत्री। १८, २१, २७, २८ विराड् गायत्री। ३० यवमध्या गायत्री ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O creative poet of existence and omniscience, pure, purifying and ever flowing divinity, Mitra, enlightened all-loving people, Aryama, men of judgement and discrimination, Varuna, people of rectitude worthy of universal choice, Maruts, vibrant warriors of peace and heroes of karmic progress, all drink and enjoy the nectar sweets of your presence in company.
मराठी (1)
भावार्थ
जो पुरुष कर्मयोगी व ज्ञानयोगी आहे तोच त्या परमात्म्याच्या आनंदाचे पान करू शकतो. दुसरा नाही. परमात्म्याप्रमाणे परमात्म्याचा आनंद ही सर्वत्र परिपूर्ण आहे; परंतु उपदेशाशिवाय किंवा सर्वश्रेष्ठ साधनांशिवाय त्याच्या आनंदाचा कोणी उपयोग करू शकत नाही. त्यासाठी येथे वरील प्रकारच्या योग्यांचे कथन केलेले आहे की वरील योगीच त्याचा आनंद भोगू शकतात. ॥२४॥
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