अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
अनु॑छ्य श्या॒मेन॒ त्वच॑मे॒तां वि॑शस्तर्यथाप॒र्वसिना॒ माभि मं॑स्थाः। माभि द्रु॑हः परु॒शः क॑ल्पयैनं तृ॒तीये॒ नाके॒ अधि॒ वि श्र॑यैनम् ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । च्छ्य॒ । श्या॒मेन॑ । त्वच॑म् । ए॒ताम् । वि॒ऽश॒स्त॒: । य॒था॒ऽप॒रु । अ॒सिना॑ । मा । अ॒भि । मं॒स्था॒: । मा । अ॒भि । द्रु॒ह॒: । प॒रु॒ऽश: । क॒ल्प॒य॒ । ए॒न॒म् । तृ॒तीये॑ । नाके॑ । अधि॑ । वि । श्र॒य॒ । ए॒न॒म् ॥५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अनुछ्य श्यामेन त्वचमेतां विशस्तर्यथापर्वसिना माभि मंस्थाः। माभि द्रुहः परुशः कल्पयैनं तृतीये नाके अधि वि श्रयैनम् ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । च्छ्य । श्यामेन । त्वचम् । एताम् । विऽशस्त: । यथाऽपरु । असिना । मा । अभि । मंस्था: । मा । अभि । द्रुह: । परुऽश: । कल्पय । एनम् । तृतीये । नाके । अधि । वि । श्रय । एनम् ॥५.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से सुख का उपदेश।
पदार्थ
(विशन्तः) हे अविद्यानाशक ! तू (एताम्) इस [हृदयस्य] (त्वचम्) ढकनेवाली [अविद्या] को (यथापरु) पूर्णता के साथ (श्यामेन) ज्ञान से और (असिना) गति अर्थात् उपाय से (अनु छ्य) काट डाल, और (मा अभि मंस्थाः) मत अभिमान कर। (परुशः) पालन का विचार करनेवाला तू (मा अभि द्रुहः) मत द्रोह कर, (एनम्) इस [जीव] को (कल्पय) समर्थ कर और (तृतीये) तीसरे [जीव और प्रकृति से अलग] (नाके) सुखस्वरूप परमेश्वर में (एनम्) इसको (अधि) अधिकारपूर्वक (वि श्रय) फैलकर आश्रय दे ॥४॥
भावार्थ
आत्मदर्शी विवेकपूर्वक मिथ्या ज्ञान का नाश करके निरभिमानी, सर्वोपकारी और पराक्रमी होकर परमात्मा का आश्रय लेकर आनन्दित होता है ॥४॥
टिप्पणी
४−(अनु) निरन्तरम् (छ्य) तनूकुरु (श्यामेन) इषियुधीन्धिदसिश्याधूसूभ्यो मक्। उ० १।१४५। श्यैङ् गतौ-मक्। श्याम श्यायतेः-निरु० ४।३। ज्ञानेन (त्वचम्) त्वच आवरणे-क्विप्। आवरणशीलाम्। अविद्याम् (एताम्) हृदयस्थाम् (विशस्तः) ग्रसितस्कभितस्तभितो०। पा० ७।२।३४। शसु हिंसायाम्−तृच्, इडभावः हे अविद्यानाशक (यथापरु) भृमृशीङ्तॄ०। उ० १।७। पॄ पालनपूरणयोः-उ प्रत्ययः। पूर्णतामनतिक्रम्य (असिना) खनिकष्यज्यसिवसि०। उ० ४।१४०। अस गतौ दीप्तौ च-इ प्रत्ययः। गत्या प्रयत्नेन (मा अभि मंस्थाः) मन ज्ञाने−लुङ्। अभिमानं मा कुरु (मा अभि द्रुहः) अनिष्टं मा चिन्तय (परुशः) पॄ पालनपूरणयोः-उ प्रत्ययः+शम आलोचने-ड प्रत्ययः। परुं पालनं शमयति विचारयति यः (कल्पय) समर्थय (एनम्) जीवात्मानम् (तृतीये) म० १। (नाके) सुखस्वरूपे परमात्मनि (अधि) अधिकृत्य (वि) विस्तारेण (श्रय) स्थापय (एनम्) ॥
विषय
श्यामेन असिना
पदार्थ
१.हे (विशस्त:) = विशेषरूप से प्रभु-शंसन करनेवाले व पापों को काटनेवाले साधक! (एतां त्वचम्) = ज्ञान पर आये हुए मलिनता व अज्ञान के आवरण को तू (श्यामेन) = [श्येङ्गतौ] गतिशील (असिना) = [अस दीसौ] ज्ञानदीप्ति से-क्रियायुक्त ज्ञान से (यथापरु) = एक-एक पर्व करके (अनुच्छ्य) = काट डाल। २. इस मलिनता को दूर करके भी (मा अभिमंस्था:) = अभिमान मत कर, (मा अभिद्रुहः) = किसी भी प्राणी से द्रोह न कर। (एनम्) = इस अभिमान व द्रोह को (परुश:) = एक एक पोरी करके (कल्पय) = काट डाला। इसप्रकार (एनम्) = इस अभिमान वद्रोह से शून्य आत्मा को (तृतीये नाके अधिविश्रय) = प्रकृति व जीव से ऊपर तृतीय [न अक:] दु:खरहित आनन्दमय प्रभु में आश्रित कर।
भावार्थ
क्रियायुक्त ज्ञान से हम मलिनता के आवरण को नष्ट करें। अभिमान व द्रोह से रहित होकर अपने को प्रभु में स्थापित करें। प्रभु ही 'तृतीय नाक' हैं।
भाषार्थ
(विशस्तः) हे विशेष प्रशस्त [आचार्य!] (श्यामेन) श्याम ब्रह्म के उपदेश द्वारा, (असिना) तथा ज्ञानासि द्वारा, (यथापरु) परु-परु करके, (एताम् त्वचम्) इस मुमुक्षु की त्वचा को (अनुच्छ्य) अनुकूलतया काट दे, (माभिमंस्थाः) इस सम्बन्ध में तू अभिमान न कर, अथवा इसकी हिंसा न कर (मा अभिद्रुहः) और न इसके साथ द्रोह कर, (एनम् परुशः कल्पय) अपितु इस मुमुक्षु को परु-परु में सामर्थ्यवान् कर, तथा (एनम्) इसको (तृतीये नाके अधि) सुखमय तीसरे नाक पर (विश्रय) विश्राम करने योग्य कर।
टिप्पणी
[विशस्तः=विशस्तृ प्रातिपदिक का सम्बुद्धि पद; यथा हे पितः!, हे मातः!। “शस्” धातु प्रशंसार्थक भी है, यथा प्रशस्तः पुरुषः। शस्त=Praised, best (आप्टे)। अनुच्छच=अनुकूल होकर काट (छो छेदने, दिवादिः), प्रतिकूल भावना से नहीं। श्यामेन= ब्रह्म के दो रूप हैं श्याम और शबल (छान्दोग्य उप० अध्याय ८, खण्ड १३)। शबल का अर्थ है नानारूपी, और श्याम का अभिप्राय है एकरूपी। जगत् के साथ सम्बन्ध से ब्रह्म नानारूपी है। माता, पिता, बन्धु, जगत् का कर्त्ता, धर्त्ता, प्रलय कर्त्ता, कर्माध्यक्ष, न्यायकारी आदि नानारूपों में ब्रह्म प्रकट होता है, और प्रलयकाल में वह एकरूपी होता है “अमात्र” अव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवः, अद्वैतम=आदि रूप। आचार्य मुमुक्षु को सांसारिक रूपों से पृथक् करने के लिये मुमुक्षु को श्याम१ ब्रह्म का उपदेश देता है ताकि वह मोक्ष का अधिकारी हो सके। साथ ही आचार्य ज्ञानासि अर्थात् विवेक ज्ञान रूपी “असि”१ अर्थात् तलवार का भी उपदेश देता है ताकि वह आविद्या की गांठ को काट सके। यथा “तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः। छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।। (गीता ५।४२) में ज्ञानासि का वर्णन हुआ है। “असि” के द्वारा शरीर के पुरुओं अर्थात् अङ्ग-प्रत्यङ्गों के काटने का यह अभिप्राय है कि मुमुक्षु के जन्मजात अङ्ग-प्रत्यङ्गों में दुराचार (मन्त्र ३) प्रविष्ट हुए-हुए है उन्हें ज्ञानासि द्वारा काटकर अलग कर देना, ताकि मुमुक्षु नव पवित्र जीवन को प्राप्त कर मुक्त हो सके। इस सम्बन्ध में आचार्य को कहा है कि मुमुक्षु को मोक्षाधिकारी बनाने में तू आत्माभिमान न कर। तथा उसे यह भी कहा है कि मुमुक्षु के साथ तू द्रोह भी न कर। अति-तपश्चर्या के द्वारा इसका हनन न कर। “अभिपूर्वो मन्यतिहिंसार्थः” (महीधर, यजु० १३।४१)। इसी भावना को प्रकट करने के लिये मन्त्र में “मा द्रुहः” तथा “कल्पयैनम्” का प्रयोग हुआ है। मन्त्रार्थ में प्रायः “शवलेन असिना” ऐसा अन्वय किया जाता है, जिस का अर्थ है “कृष्णवर्ण मिश्रित नीली तलवार” द्वारा इसके पुरुओं अर्थात् जोड़ों को काट दे। परन्तु यह अर्थ मन्त्रोवत “माभिम्ंस्थाः, मा अभिद्रुहः, और कल्पयैनम्” के विरुद्ध प्रतीत होता है ] [१.आचार्य शिष्य के दुर्गुणों को हटाने के लिये असि-क्रिया अर्थात् शल्य-क्रिया करता है, और सद्गुणों का आधान करने के लिये श्याम-ब्रह्म के सदुपदेश का आश्रय लेता है इसलिये आचार्य को “मृत्यु” कहा है, और “वरुण, सोम, ओषधः, तथा पयः (दूध) भी कहा है (अथर्व० ११।५।१४)।]
विषय
अज के दृष्टान्त से पञ्चौदन आत्मा का वर्णन।
भावार्थ
हे (वि-शस्तः) विशेष रूप से ब्रह्म का उपदेश करने हारे गुरो ! पुरुष ! अथवा अपने कर्म बन्धनों को काटने में उद्यत ! (एताम्) इस (त्वचम्) आत्मा को ढकने वाली आवरण रूप तामस अविद्यारूप त्वचा को (श्यामेन) ज्ञानमय (असिना) सत् प्रकाश से (यथापरु) यथाशक्ति (अनु च्छ्य) काट डाल। उतने पर भी स्वयं निष्पाप निर्बन्ध, मुक्त होकर लोकलोकान्तरों में स्वतन्त्र होकर विचरने का अधिकारी होने या उच्च पद प्राप्ति के लिये (मा अभि मंस्थाः) अभिमान मत कर। और (मा अभिद्रुहः) किसी से द्रोह मत कर। प्रत्युत (एनम्) इस आत्मा के (परुषः) प्रत्येक अंग को प्रत्येक पर्व या शक्ति के भाग को (कल्पय) साधननिष्ठ एवं समर्थ, शक्तिमान् बना। और तब (एनम्) इसको (तृतीये) सब दुःखों से पार स्थित (नाके) परम सुखमय पद में (अधि विश्रय) स्थापित कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अजः पञ्चोदनो देवता। १, २, ५, ९, १२, १३, १५, १९, २५, त्रिष्टुभः, ३ चतुष्पात् पुरोऽति शक्वरी जगती, ४, १० नगत्यौ, १४, १७,२७, ३०, अनुष्टुभः ३० ककुम्मती, २३ पुर उष्णिक्, १६ त्रिपाद अनुष्टुप्, १८,३७ त्रिपाद विराड् गायत्री, २४ पञ्चपदाऽनुपटुबुष्णिग्गर्भोपरिष्टाद्बर्हता विराड् जगती २०-२२,२६ पञ्चपदाउष्णिग् गर्भोपरिष्टाद्बर्हता भुरिजः, ३१ सप्तपदा अष्टिः, ३३-३५ दशपदाः प्रकृतयः, ३६ दशपदा प्रकृतिः, ३८ एकावसाना द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप, अष्टात्रिंशदर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Soul, the Pilgrim
Meaning
O destroyer of the veil of darkness, remove the darkness and illusion of this ignorance by the lazer beams of radiant light. Be not proud, do not hate nor malign. Develop and strengthen the immortal spirit part by part of the personality, remove the veil shade by shade, and help the spirit rise step by step and abide in the third state, beyond pleasure and pain, of freedom and bliss of Moksha.
Translation
O cutter, cut this skin with the grey knife along the joints. Be not arorgant, be not hateful; prepare him joint by joint; set him up in the third sorrowless world.
Translation
O man ! you are the uprooter of 1gnorance, you by the sword of discrimination completely cut up the cover that like skin covers the intellect, do not ever cultivate the habit of pride and do not be inimical to anyone. Strong in will you make this your soul capable and establish it in the third Ashram known as Vanaprashtha, the life of austerity.
Translation
O preceptor, the dispeller of nescience, cut asunder completely, with knowledge and exertion, this covering ofignorance overshadowing the mind. Don’t be proud. O thinker for sustenance, entertain malice for none. Strengthen this soul, and establish it in the Blissful God, higher than Matter and Soul.
Footnote
God occupies the third stage of spiritual elevation. Matter is the first. Soul the second, and God the third highest stage. Thinker for sustenance: The teacher thinks for the welfare and sustenance of the pupil.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(अनु) निरन्तरम् (छ्य) तनूकुरु (श्यामेन) इषियुधीन्धिदसिश्याधूसूभ्यो मक्। उ० १।१४५। श्यैङ् गतौ-मक्। श्याम श्यायतेः-निरु० ४।३। ज्ञानेन (त्वचम्) त्वच आवरणे-क्विप्। आवरणशीलाम्। अविद्याम् (एताम्) हृदयस्थाम् (विशस्तः) ग्रसितस्कभितस्तभितो०। पा० ७।२।३४। शसु हिंसायाम्−तृच्, इडभावः हे अविद्यानाशक (यथापरु) भृमृशीङ्तॄ०। उ० १।७। पॄ पालनपूरणयोः-उ प्रत्ययः। पूर्णतामनतिक्रम्य (असिना) खनिकष्यज्यसिवसि०। उ० ४।१४०। अस गतौ दीप्तौ च-इ प्रत्ययः। गत्या प्रयत्नेन (मा अभि मंस्थाः) मन ज्ञाने−लुङ्। अभिमानं मा कुरु (मा अभि द्रुहः) अनिष्टं मा चिन्तय (परुशः) पॄ पालनपूरणयोः-उ प्रत्ययः+शम आलोचने-ड प्रत्ययः। परुं पालनं शमयति विचारयति यः (कल्पय) समर्थय (एनम्) जीवात्मानम् (तृतीये) म० १। (नाके) सुखस्वरूपे परमात्मनि (अधि) अधिकृत्य (वि) विस्तारेण (श्रय) स्थापय (एनम्) ॥
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