अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 12
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुब्गर्भा जगती
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
यमब॑ध्ना॒द्बृह॒स्पति॒र्वाता॑य म॒णिमा॒शवे॑। तेने॒मां म॒णिना॑ कृ॒षिम॒श्विना॑व॒भि र॑क्षतः। स भि॒षग्भ्यां॒ महो॑ दुहे॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्व॒स्तेन॒ त्वं द्वि॑ष॒तो ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । अब॑ध्नात् । बृह॒स्पति॑: । वाता॑य । म॒णिम् । आ॒शवे॑ । तेन॑ । इ॒माम् । म॒णिना॑ । कृ॒षिम् । अ॒श्विनौ॑ । अ॒भि । र॒क्ष॒त॒: । स: । भि॒षक्ऽभ्या॑म् । मह॑: । दु॒हे॒ । भूय॑:ऽभूय:। श्व:ऽश्व॑: । तेन॑ । त्वम् । द्वि॒ष॒त: । ज॒हि॒ ॥६.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
यमबध्नाद्बृहस्पतिर्वाताय मणिमाशवे। तेनेमां मणिना कृषिमश्विनावभि रक्षतः। स भिषग्भ्यां महो दुहे भूयोभूयः श्वःश्वस्तेन त्वं द्विषतो जहि ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । अबध्नात् । बृहस्पति: । वाताय । मणिम् । आशवे । तेन । इमाम् । मणिना । कृषिम् । अश्विनौ । अभि । रक्षत: । स: । भिषक्ऽभ्याम् । मह: । दुहे । भूय:ऽभूय:। श्व:ऽश्व: । तेन । त्वम् । द्विषत: । जहि ॥६.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 12
भाषार्थ -
(बृहस्पतिः) परमेश्वर ने (आाशवे, वाताय) शीघ्रगति वाली वायु के निर्माण के लिये, (यम्, मणिम्) जिस मणि को (अवध्नात्) बान्धा, (तेन मणिन) उस मणि द्वारा (अश्विना) दो अश्वी अर्थात् प्राण और अपान (इमाम्, कृषिम्) इस कृषि की (अभिरक्षतः) रक्षा करते हैं। (सः) उस वात अर्थात् वायु ने (भिषग्भ्याम्) वैद्यरूप दो अश्वियों के लिये (महः) महत्त्व (दुहे) दोहा है, (भूयोभूयः) बार-बार या अधिकाधिक रूप में, (श्वः श्वः) आए दिन-प्रतिदिन, (तेन) उस वात द्वारा (त्वम्) हे परमेश्वर ! तू (द्विषतः) रोग-शत्रुओं का (जहि) हनन कर।
टिप्पणी -
[मन्त्र ११,१२ का विषय एक है। कृषि द्वारा शरीररूपी क्षेत्र में, कर्मरूपी कृषि का वर्णन हुआ है, जिस का परिपाक है सुख और दुःख। गीता में शरीर को क्षेत्र कहा है, और जीवात्मा को क्षेत्रज्ञ अर्थात् क्षेत्र का स्वामी। शरीर क्षेत्र में कर्म बीज बोएं जाते हैं, बोने वाला क्षेत्रज्ञ जीवात्मा है। इस कृषि की रक्षा प्राणापान करते हैं। जिन्हें अश्विनी कहा है। शरीर में व्याप्त होकर शरीर की रक्षा करते हैं, अश्विनौ= अशुङ् व्याप्तौ। ये दोनों वातरूप हैं, वायुरूप हैं। यह वायु ही प्राण और अपानरूप में परिणत हो रही है, नासिका द्वारा शरीर में प्रविष्ट होकर। इसलिये अश्वियों को "नासत्यौ” भी कहते हैं। "नासत्यौ= नासाप्रभवौ" (निरुक्त ६।३।१३; "पुरन्धिः" ५१)। ये दो अश्विनौ भिषग् है; वैद्यवत् चिकित्सा करते हैं, "अश्विनौ देवानां भिषजौ"। प्राण और अपान शरीरशुद्धि द्वारा और शरीरपुष्टि द्वारा वैद्यवत्, चिकित्सक हैं। मन्त्र में कृषि द्वारा प्रकरणगत प्राकृतिक कृषि भी अभिप्रेत हो सकती है, जिस की रक्षा पृथिवी-द्यौ, तथा सूर्य-चन्द्रमा करते हैं। अश्विनौ= द्यावापृथिव्यावित्येके। सूर्याचन्द्रमसावित्येके। द्यौः वर्षा द्वारा रक्षा करती है, और पृथिवी भोज्योत्पादन द्वारा तथा सूर्य ज्योति द्वारा और तभा सूर्य द्वारा ज्योति और चन्द्रमा रसप्रदान द्वारा कृषि की रक्षा करते हैं (निरुक्त १२।१।१)]।