अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 19
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
अ॑न्तर्दे॒शा अ॑बध्नत प्र॒दिश॒स्तम॑बध्नत। प्र॒जाप॑तिसृष्टो म॒णिर्द्वि॑ष॒तो मेऽध॑राँ अकः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्त॒:ऽदे॒शा: । अ॒ब॒ध्न॒त॒ । प्र॒ऽदिश॑: । तम् । अ॒ब॒ध्न॒त॒ । प्र॒जाप॑तिऽसृष्ट: । म॒णि: । द्वि॒ष॒त: । मे॒ । अध॑रान् । अ॒क॒: ॥६.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तर्देशा अबध्नत प्रदिशस्तमबध्नत। प्रजापतिसृष्टो मणिर्द्विषतो मेऽधराँ अकः ॥
स्वर रहित पद पाठअन्त:ऽदेशा: । अबध्नत । प्रऽदिश: । तम् । अबध्नत । प्रजापतिऽसृष्ट: । मणि: । द्विषत: । मे । अधरान् । अक: ॥६.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 19
भाषार्थ -
(अन्तर्देशाः)१ देशों के भीतर निवास करने वाले प्रजाजनों ने (अबध्नत) बान्धा, (प्रदिशः) अवान्तर दिशाओं या भिन्न-भिन्न प्रदेशों में निवास करने वाले प्रजाजनों ने (तम्) उस मणि को (अबध्नत) बान्धा। (प्रजापति सृष्टः) प्रजाओं के पति परमेश्वर द्वारा रची गई मणि ने (मे) मेरे (द्विषतः) द्वेषी शत्रुओं को मेरे (अधरान्) नीचे अर्थात् अधीन (अकः) कर दिया है।
टिप्पणी -
[प्रदिशः=मुख्य चार दिशाओं की मध्यवर्ती दिशाएं, ऐशानी, आग्नेयी, नैर्ऋती, वायवी; अथवा भिन्न-भिन्न प्रदेशों के अर्थात् तन्निवासी प्रजाजन। प्रजापतिसृष्ट मणि है कामना, संकल्प, दृढनिश्चय। प्रजापति ने मानुषी प्रजाओं में इस मणि की रचना की हुई है। इस मणि द्वारा मनुष्य निज आधिभौतिक तथा अध्यात्मद्वेषी शत्रुओं को अपने अधीन करते हैं। अधरान् = अधोरः, अधस्+रः (मत्वर्थीयः), (निरूक्त २।३।११) ] [१. अन्तर्देशाः तथा प्रदिशः का अभिप्राय है अन्तर्देशों के निवासी, तथा दिशाओं वा प्रदेशों में निवास करने वाली प्रजाएं।]