अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 35
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - पञ्चपदा त्र्यनुष्टुब्गर्भा जगती
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
ए॒तमि॒ध्मं स॒माहि॑तं जुष॒णो अग्ने॒ प्रति॑ हर्य॒ होमैः॑। तस्मि॑न्विधेम सुम॒तिं स्व॒स्ति प्र॒जां चक्षुः॑ प॒शून्त्समि॑द्धे जा॒तवे॑दसि॒ ब्रह्म॑णा ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तम् । इ॒ध्मम् । स॒म्ऽआहि॑तम् । जु॒षा॒ण: । अग्ने॑ । प्रति॑ । ह॒र्य॒ । होमै॑: । तस्मि॑न् । वि॒दे॒म॒ । सु॒ऽम॒तिम् । स्व॒स्ति । प्र॒ऽजाम् । चक्षु॑: । प॒शून् । सम्ऽइ॑ध्दे । जा॒तऽवे॑दसि । ब्रह्म॑णा ॥६.३५॥
स्वर रहित मन्त्र
एतमिध्मं समाहितं जुषणो अग्ने प्रति हर्य होमैः। तस्मिन्विधेम सुमतिं स्वस्ति प्रजां चक्षुः पशून्त्समिद्धे जातवेदसि ब्रह्मणा ॥
स्वर रहित पद पाठएतम् । इध्मम् । सम्ऽआहितम् । जुषाण: । अग्ने । प्रति । हर्य । होमै: । तस्मिन् । विदेम । सुऽमतिम् । स्वस्ति । प्रऽजाम् । चक्षु: । पशून् । सम्ऽइध्दे । जातऽवेदसि । ब्रह्मणा ॥६.३५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 35
भाषार्थ -
(अग्ने) हे अग्नि ! (समाहितम्) सम्यक्-आधान किये (एतम्, इमम्) इस इध्म का (जुषाणः) सेवन करती हुई तू (होमैः) आहुतियों द्वारा (प्रतिहर्य) कान्ति सम्पन्न हो, प्रदीप्त हो। (ब्रह्मणा) परमेश्वर की कृपा या वेदमन्त्र द्वारा (तस्मिन् जातवेदसि) उस जातवेदाः के (समिद्धे "सति") सम्यक् -प्रदीप्त हो जाने पर (सुमतिम्, स्वस्ति, प्रजाम्, चक्षुः, पशून्) सुमति, कल्याण, प्रजा, स्वस्थ चक्षु आदि इन्द्रियों और पशुओं को (विदेम) हम प्राप्त करें।
टिप्पणी -
[पूर्व के मन्त्रों में कथित कामनाओं के सफल हो जाने पर परमेश्वर के प्रसादनार्थ यज्ञ का विधान मन्त्र में हुआ है। यज्ञाग्नि की उद्दीप्ति द्वारा सुमति आदि पदार्थ प्राप्त होते हैं। यज्ञिय धूम द्वारा अन्तरिक्ष में स्थित जल, मेघरूप होकर, जब बरसते हैं, तब अन्न की उत्पत्ति पूर्वक, वर्णित अभिलाषाएं पूर्ण होती हैं। जातवेदाः अग्नि है, जो कि “जात” अर्थात् उत्पन्न प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान है। "जातवेदाः= जातानि वेद। जातानि वैनं विदुः। जाते जाते विद्यते वा। जातवित्तो वा जातधनः। जातविद्यो वा जातप्रज्ञः” (निरुक्त ७।५।१९)। तथा "जातवेदस इति जातमिदं सर्वसचराचरं स्थित्युत्पत्तिप्रलयन्यायेनाच्छाय यो विद्यते सः" (निरुक्त १३ (१४)। ३ (२) । ३४ (४७)। अग्नि द्वारा अग्निष्ठ परमेश्वराग्नि भी अभिप्रेत है। यथा “अग्नावग्निश्चरति प्रविष्टः" (अथर्व० ४।३९।९)। यज्ञियाग्नि की स्तुति और परिचर्या द्वारा, परमेश्वराग्नि की भी स्तुति और परिचर्या जाननी चाहिये। परमेश्वराग्नि के सम्बन्ध में इध्म है जीवात्मा "अयं त इध्म आत्मा जातवेदः" (आश्वलायन गृह्यसूत्र १।१०।१२) जीवात्मा१ में परमेश्वराग्नि प्रज्वलित होती है, चमकती है। जातवेदाः की निरुक्तियां परमेश्वराग्नि में अधिक सुसंगत होती हैं, उस के समिद्ध हो जाने पर प्रकट हो जाने पर, सुमति, स्वस्ति आदि सुलभ हो जाते हैं।] [१. आध्यात्मिक अर्थ में अन्वय= "अयम् आत्मा ते इध्मः", हे परमेश्वर ! यह मेरी आत्मा तेरे लिये इध्म है, इस में तू प्रज्वलित हो, प्रदीप्त हो, प्रकट हो।]