अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 9
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा शक्वरी
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
यमब॑ध्ना॒द्बृह॒स्पति॑र्म॒णिं फालं॑ घृत॒श्चुत॑मु॒ग्रं ख॑दि॒रमोज॑से। तं सूर्यः॒ प्रत्य॑मुञ्चत॒ तेने॒मा अ॑जय॒द्दिशः॑। सो अ॑स्मै॒ भूति॒मिद्दु॑हे॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्व॒स्तेन॒ त्वं द्वि॑ष॒तो ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । अब॑ध्नात् । बृह॒स्पति॑: । म॒णिम् । फाल॑म् । घृ॒त॒ऽश्चुत॑म् । उ॒ग्रम् । ख॒दि॒रम् । ओज॑से । तम् । सूर्य॑: । प्रति॑ । अ॒मु॒ञ्च॒त॒ । तेन॑ । इ॒मा: । अ॒ज॒य॒त् । दिश॑: । स: । अ॒स्मै॒ । भूति॑म् । इत् । दु॒हे॒ । भूय॑:ऽभूय:। श्व:ऽश्व॑: । तेन॑ । त्वम् । द्वि॒ष॒त: । ज॒हि॒ ॥६.९॥
स्वर रहित मन्त्र
यमबध्नाद्बृहस्पतिर्मणिं फालं घृतश्चुतमुग्रं खदिरमोजसे। तं सूर्यः प्रत्यमुञ्चत तेनेमा अजयद्दिशः। सो अस्मै भूतिमिद्दुहे भूयोभूयः श्वःश्वस्तेन त्वं द्विषतो जहि ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । अबध्नात् । बृहस्पति: । मणिम् । फालम् । घृतऽश्चुतम् । उग्रम् । खदिरम् । ओजसे । तम् । सूर्य: । प्रति । अमुञ्चत । तेन । इमा: । अजयत् । दिश: । स: । अस्मै । भूतिम् । इत् । दुहे । भूय:ऽभूय:। श्व:ऽश्व: । तेन । त्वम् । द्विषत: । जहि ॥६.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(खदिरम्) खैर वृक्ष के काष्ठरूप, या उस काष्ठ से निर्मित (फालम्) हल के फाल द्वारा उत्पन्न, (घृतश्चुतम्) घृतस्रावी, (उग्रम्) ऊग्ररूप (यम्) जिस (मणिम्) कृष्यन्नरूप रत्न को (बृहस्पतिः) परमेश्वर ने (अबध्नात्) बान्धा है, उस के उत्पादन रूपी व्रत को धारण किया है, (ओजसे) ताकि प्रजाओं को ओज प्राप्त हो। (तम्) मणि=उस कृष्यन्न के उत्पन्न व्रत को (सूर्यः) सूर्य ने भी (प्रत्यमुञ्चत) धारण किया है,बान्धा है। (तेन) उस सूर्य ने (इमाः दिशः) इन दिशाओं पर (अजयत्) विजय पाई है। (सः) उस सूर्य ने (अस्मै) इस परमेश्वर के लिये (भूतिम्, इत्) विभूति को (दुहे) दोहा है (भूयोभूयः) बार-बार या अधिकाधिक रूप में, (श्वः श्वः) आए दिन-प्रति-दिन। (तेन) उस सूर्य द्वारा (त्वम्) हे परमेश्वर तू (द्विषतः) हमारे रोग-शत्रुओं का हनन कर।
टिप्पणी -
["तेन" द्वारा भूति का निर्देश नहीं। "तेन" पद पुंलिङ्ग है, और भूति स्त्रीलिङ्ग है। अतः “तेन" द्वारा सूर्य का निर्देश हुआ है। "ओजसे" द्वारा कृष्यन्न के सेवन से प्राप्तः ओज प्रजाओं के लिये है, न कि परमेश्वर के लिये। फालम् = फालात्-जात कृष्यन्न (मन्त्र २)। दिशः= दिशाओं का ज्ञान सूर्य के उदय तथा अस्तगत होने द्वारा होता है, अतः मानो सूर्य ने दिशाओं पर विजय पाई हुई है। भूतिम=सूर्य विभूति-सम्पन्न है। परमेश्वर द्वारा सूर्य उत्पन्न हुआ। अतः कार्यरूपी सूर्य, निज कर्ता की विभूति का परिचायक है। सूर्य रोगनिवारक है। यथा "सं ते शीर्ष्णः कपालानि हृदयस्य च यो विधुः।उद्यन्नादित्यः रश्मिभिः शीर्ष्णो रोगमनीनशोऽङ्गभेदमशीशमः" ॥ (अथर्व० ९।१३ (८)।२२)। तथा "अनु सूर्यमुदयता हृद्द्द्योतो हरिमा च ते" (अथर्व० १।२२।१)। मन्त्र में हृदय की जलन और शरीर के हरेपन के विनाश में सूर्य को कारण कहा है। तथा "उद्यन्नादित्यः क्रिमीन् हन्तु निम्लोचन् हन्तु रश्मिभिः। ये अन्तः क्रिमयो गवि" (अथर्व० २।३२।१)। उदित तथा अस्त होते हुए आदित्य की रश्मियां लाल होती हैं, इन लाल रश्मियों में रोगविनाश करने की अधिक शक्ति सम्भव प्रतीत होती है। क्रिमयः = विविध प्रकार के germs (रोग कीटाणु)। गवि=पृथिवी तथा रश्मियां। "गावः रश्मिनाम" (निघं० १।२)। वक्तव्य— याज्ञिक सम्प्रदायानुसार खदिर काष्ठ के फाल के विकाररूपी मणि को बांधने का वर्णन है। यथा "खदिरकाष्ठफालविकार मणि शत्रुनाशाय सर्वकामावाप्तये च बध्नाति" (अथर्व० १०।६ के विनियोग में सायण)। पाश्चात्य आदि वैदिक विद्वान् इस मणि को "Amulet” अर्थात् जादू टोना रूप मानते हैं। क्या चन्द्रमा (मन्त्र १०), सविता (१३) आपः (१४), ऋतु आर्तव, संवत्सर (१८), अन्तर्देश, प्रदिशः (१९) आदि जड़ पदार्थ भी इस मणि को बान्धते हैं। अतः मणिबन्धन का अर्थ जो इस सूक्त के भाष्य में किया गया है, वही समुचित प्रतीत होता है]