अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 11
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
यमब॑ध्ना॒द्बृह॒स्पति॒र्वाता॑य म॒णिमा॒शवे॑। सो अ॑स्मै वा॒जिन॒मिद्दु॑हे॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्व॒स्तेन॒ त्वं द्वि॑ष॒तो ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । अब॑ध्नात् । बृह॒स्पति॑: । वाता॑य । म॒णिम् । आ॒शवे॑ । स: । अ॒स्मै॒ । वा॒जिन॑म् । दु॒हे॒ । भूय॑:ऽभूय:। श्व:ऽश्व॑: । तेन॑ । त्वम् । द्वि॒ष॒त: । ज॒हि॒ ॥६.११॥
स्वर रहित मन्त्र
यमबध्नाद्बृहस्पतिर्वाताय मणिमाशवे। सो अस्मै वाजिनमिद्दुहे भूयोभूयः श्वःश्वस्तेन त्वं द्विषतो जहि ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । अबध्नात् । बृहस्पति: । वाताय । मणिम् । आशवे । स: । अस्मै । वाजिनम् । दुहे । भूय:ऽभूय:। श्व:ऽश्व: । तेन । त्वम् । द्विषत: । जहि ॥६.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(बृहस्पतिः) बृहद्-ब्रह्माण्ड-के पति परमेश्वर ने (आशवे, वाताय) शीघ्रगति वाली वायु के निर्माण के लिये, (यम्, मणिम्) जिस मणि को (अबध्नात्) बान्धा। (सः) उस वायु ने (अस्मै) इस बृहस्पति के लिये (वाजिनम्) बल को (दुहे) दोहा, (भूयोभूयः) बार-बार या अधिकाधिक रूप में, (श्वः श्वः) आए दिन-प्रति-दिन, (तेन) उस वात द्वारा (त्वम्) हे परमेश्वर ! तू (द्विषतः) रोग-शत्रुओं का (जहि) हनन कर१।
टिप्पणी -
[वाताय२=वातं निर्मातुम्; तमुन्नर्थे चतुर्थी (अष्टा० २।३।१४)। अवध्नात् = बान्धा, वायु के निर्माण का निश्चय किया, ईक्षण किया। वात अर्थात् वायु आशु है, शीघ्रगति वाली है। इस ने निज शीघ्रता द्वारा बृहस्पति में शीघ्रगति का बल प्रदान किया, कार्यरूपी वायु ने निज कर्त्ता-परमेश्वर के शोधकार्यकतृत्व को सूचित किया। इस शीघ्रता को यजुर्वेद में "मनसो जवीयः" (३१।४) द्वारा प्रदर्शित किया है। वाजिनम्=बलम्। यथा "वाजिनां वाजिनानि" (अथर्व० ३।१९।६)। वाजिनानि = बलानि (सायण)। परमेश्वर, वात द्वारा, रोगरूपी शत्रुओं का हनन करता है। यथा - आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रपः। त्वं हि विश्वभेषज देवानां दूत ईयसे ॥ वात को भेषज और विश्वभेषज कहा है। यह "रपः” पापरूपी रोगों को दूर करता, और इन्द्रिय-देवों के रोग-शत्रुओं का दूत है; उपतापी है। दूतः=टुदु उपतापे (स्वादिः)। अथवा दूङ् परितापे (दिवादिः)। प्राणापान कि गति द्वारा इन्द्रियों पर शरीर के मल दूर होते हैं, और ये पुष्ट होते हैं।] [१. मन्त्र ११ से ३५ में खदिरम् और फालम् शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ, केवल मन्त्र ३३ में "फालेन कृष्टे" शब्दों का प्रयोग हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि इन मन्त्रों में "मणि" द्वारा कृष्यन्न अभिप्रेत नहीं, अपितु "मणि" द्वारा "उत्कृष्ट-तत्व" अर्थ ही अभिप्रेत है। अतः एतदनुसार ही इन मन्त्रों के अर्थ किये हैं। २. भूत-भौतिक जगत् के निर्माण में मन्त्र ११ से १७ तक वात का वर्णन है। कारण यह कि "तस्माद्वा एतस्मादात्मनः आकाशः सम्भूतः, आकाशाद् वायुः, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अद्भ्यः पृथिवी, पृथिव्या ओषधयः, ओषधीभ्योऽन्नम्, अन्नाद्रेतः, रेतसः पुरुषः (तै० उप०) के अनुसार सूक्ष्मतत्त्व से उत्तरोत्तर स्थूलतत्त्व की उत्पत्ति दर्शाई गई है। आकाश अति सूक्ष्म है, और कईयों के मत में नित्य है। इसलिये भूत भौतिक जगत् में मूल कारण वायु या वात है। इसलिये वायु या वात की उत्पत्ति दर्शाई गई है। आकाश= आ+ काश् (दीप्तौ)। अतः प्रतीत होता है कि आकाश है प्रकाश का माध्यम। पश्चात् काल में आकाश को शब्द का माध्यम माना गया प्रतीत होता है। सम्भवतः आकाश पाश्चात्य वैज्ञानिकों का Ether है। ETHER= A subtle medium supposed to fill all space. Ether= Aithein (ग्रीक) = To shine, To light up, ञिइन्घी दीप्तौ।]