अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 29
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
तमि॒मं दे॒वता॑ म॒णिं मह्यं॑ ददतु॒ पुष्ट॑ये। अ॑भि॒भुं क्ष॑त्र॒वर्ध॑नं सपत्न॒दम्भ॑नं म॒णिम् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । इ॒मम् । दे॒वता॑: । म॒णिम् । मह्य॑म् । द॒द॒तु॒ । पुष्ट॑ये । अ॒भि॒ऽभुम् । क्ष॒त्र॒ऽवर्ध॑नम् । स॒प॒त्न॒ऽदम्भ॑नम् । म॒णिम् ॥६.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिमं देवता मणिं मह्यं ददतु पुष्टये। अभिभुं क्षत्रवर्धनं सपत्नदम्भनं मणिम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । इमम् । देवता: । मणिम् । मह्यम् । ददतु । पुष्टये । अभिऽभुम् । क्षत्रऽवर्धनम् । सपत्नऽदम्भनम् । मणिम् ॥६.२९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 29
भाषार्थ -
(देवताः) देव (तम् इमम्) पूर्ववर्णित इस (मणिम्) मणि को (पुष्टये) पुष्टि के लिये (मह्यम्) मुझे (ददतु) देवें, जो कि (मणिम्) मणि (अभिभुम्) पराभव करने वाली है, (क्षत्रवर्धनम्) क्षतियों से त्राण करने की शक्ति की वृद्धि करती है, (सपत्नदम्भनम्) शत्रुओं को दबाने वाली या उन का विनाश करने वाली है।
टिप्पणी -
[देवताः= प्रकरणानुसार, पूर्व के मन्त्रों में वर्णित "देवेभ्यः” का निर्देश "देवताः" द्वारा हुआ है, या इस का अभिप्राय है दिव्यगुणी महात्मा आदि। मन्त्र में "मणि" का अभिप्राय है, शुभकामना, तथा शुभ संकल्प। इस द्वारा आसुर विचार और कर्मरूपी शत्रुओं का पराभव तथा दमन होता, तथा क्षत्रशक्ति प्राप्त होती है। क्षत्रम् = क्षतात् त्राणम्]।