अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
अराती॒योर्भ्रातृ॑व्यस्य दु॒र्हार्दो॑ द्विष॒तः शिरः॑। अपि॑ वृश्चा॒म्योज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒रा॒ति॒ऽयो: । भ्रातृ॑व्यस्य । दु॒:ऽहार्द॑: । द्वि॒ष॒त: । शिर॑: । अपि॑ । वृ॒श्चा॒मि॒ । ओज॑सा ॥६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अरातीयोर्भ्रातृव्यस्य दुर्हार्दो द्विषतः शिरः। अपि वृश्चाम्योजसा ॥
स्वर रहित पद पाठअरातिऽयो: । भ्रातृव्यस्य । दु:ऽहार्द: । द्विषत: । शिर: । अपि । वृश्चामि । ओजसा ॥६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(अरातीयतः) अराति अर्थात् शत्रुसदृश व्यवहार करते हुए, (दुहर्दिः) बुरी हार्दिक भावनाओं बाले, (द्विषतः) द्वेष करते हुए, (भ्रातृव्यस्य) सपत्नरूप भतीजे [भाई के पुत्र] के (शिरः) सिर को (अपि) भी (ओजसा) बल के साथ (वृश्चामि) मैं [राज्याधिकारी] काटता हूं।
टिप्पणी -
[अरातीयतः=अ+ रा (दाने, अदादिः) +ति + क्यच् (आचारे) + शतृ। जोकि मनुष्य समाज की उन्नति आदि के लिये दान नहीं देता, तथा यथोचित राज-कर नहीं देता वह वेद की दृष्टि से शत्रु है। भ्रातृव्यस्य=भ्रातुः "व्यन् सपत्ने" (अष्टा० ४।१।१४५), भ्रातृशब्द से "व्यन्" प्रत्यय होता है "सपत्न" अर्थ में। अष्टाध्यायी के अनुसार "भ्रातृव्य" के दो अर्थ होते हैं। (१) भाई का पुत्र, जो कि शत्रुरूप नहीं (भ्रातुर्व्यच्च ४।१।१४४)। (२) भाई का पुत्र, जो कि शत्रुरूप है, न्यायव्यवस्था के प्रतिकूल चलता है। स्वरभेद, अर्थभेद का परिचायक है। मन्त्र में कहा है कि राजा निज भाई के पुत्र को, जो कि राष्ट्र का शत्रुरूप हो, शिरःछेद द्वारा मृत्युदण्ड दे। वैदिक न्यायव्यवस्था उग्ररूप है। यह राष्ट्र के लिये श्रेयस्करी है। जैसे कि "सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति" (अथर्व० १२।११) में उग्र-ऋत अर्थात् उग्र-नियम को पृथिवी के धारण-पोषण में सहायक कहा है]