अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा शक्वरी
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
यमब॑ध्ना॒द्बृह॒स्पति॑र्म॒णिं फालं॑ घृत॒श्चुत॑मु॒ग्रं ख॑दि॒रमोज॑से। तं सोमः॒ प्रत्य॑मुञ्चत म॒हे श्रोत्रा॑य॒ चक्ष॑से। सो अ॑स्मै॒ वर्च॒ इद्दु॑हे॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्व॒स्तेन॒ त्वं द्वि॑ष॒तो ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । अब॑ध्नात् । बृह॒स्पति॑: । म॒णिम् । फाल॑म् । घृ॒त॒ऽश्चुत॑म् । उ॒ग्रम् । ख॒दि॒रम् । ओज॑से । तम् । सोम॑: । प्रति॑ । अ॒मु॒ञ्च॒त॒ । म॒हे । श्रोत्रा॑य । चक्ष॑से । स: । अ॒स्मै॒ । वर्च॑: । इत् । दु॒हे॒ । भूय॑:ऽभूय:। श्व:ऽश्व॑: । तेन॑ । त्वम् । द्वि॒ष॒त: । ज॒हि॒ ॥६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
यमबध्नाद्बृहस्पतिर्मणिं फालं घृतश्चुतमुग्रं खदिरमोजसे। तं सोमः प्रत्यमुञ्चत महे श्रोत्राय चक्षसे। सो अस्मै वर्च इद्दुहे भूयोभूयः श्वःश्वस्तेन त्वं द्विषतो जहि ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । अबध्नात् । बृहस्पति: । मणिम् । फालम् । घृतऽश्चुतम् । उग्रम् । खदिरम् । ओजसे । तम् । सोम: । प्रति । अमुञ्चत । महे । श्रोत्राय । चक्षसे । स: । अस्मै । वर्च: । इत् । दुहे । भूय:ऽभूय:। श्व:ऽश्व: । तेन । त्वम् । द्विषत: । जहि ॥६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(यम् अबध्नात्•••••ओजसे) अर्थ पूर्ववत् (मन्त्र ६)। (तम्) उसे (सोमः) सेनानायक ने भी (प्रत्यमुञ्चत) धारण किया है (महे श्रोत्राय चक्षसे) महती श्रवणशक्ति के लिये, तथा महती दृष्टि के लिये। (सः) वह (सोमः) सेनानायक (अस्मै) इस बृहस्पति के लिये (वर्चः) दीप्ति या कान्ति (इद्) ही (दुहे) दोहता है, प्रदान करता है, (भूयोभूयः) वार-वार या अधिकाधिक रूप में, (श्वः श्वः) आए दिन-प्रति-दिन (तेन) उस वर्चस् या सोम द्वारा (त्वम्) हे बृहस्पति ! तु (द्विषतः) द्वेषी शत्रुओं का (जहि) हनन कर।
टिप्पणी -
[सोमः= सेना का प्रेरक, सेनानायक, जो कि सेना के अग्रभाग में हो कर, सेना को मार्ग दर्शाता है। सोमः= षू प्रेरणे (तुदादिः)। यह महती श्रवणशक्ति से सम्पन्न होना चाहिये, ताकि शत्रुसेना के शोर को दूर होती हुए भी सुन सके, तथा महती दृष्टि से भी सम्पन्न होना चाहिये, ताकि शत्रुसेना की स्थिति को दूर से ही देख सके। सोम और बृहस्पति सम्बन्धी मन्त्र, यथा- इन्द्रऽआसान्नेता बृहस्पतिर्दक्षिणा यज्ञः पुर एतु सोमः । देवसेनानामभिभञ्जतीनाञ्जयन्तीनाम्मरुतो यन्त्वग्रम् ॥ (यजु० १७।४०)। इन सेनाओं का नेता इन्द्र अर्थात् सम्राट् (यजु० ८।३७) है; बृहस्पति इन सेनाओं के दक्षिण पार्श्व में चलता है। "यज्ञ" अर्थात् शत्रुसेना के साथ संगम कराने वाला, भिड़ाने वाला सोम इन के पुर आगे-आगे हो। देवों अर्थात् विजिगीषु सैनिकों की सेनाएं, जोकि शत्रु सेनाओं का भग्न करें, उन के आगे मारने में कुशल सैनिक हों। यज्ञः = यज देवपूजा, संगतिकरण, और दान। मन्त्र में संगति अर्थात् संगम अर्थ अभिप्रेत हैं। देव=विजिगीषु, यथा “दिवु क्रीडाविजिगीषा" आदि (दिवादिः)। मरुतः = "म्रियते मारयति वा सः मरुत् मनुष्यजातिः" (उणा० १।९४, 'महर्षि दयानन्द)। अभिप्राय यह कि (१) सम्राट् नागरिक प्रजा और सैन्य प्रजा का नेता है, मुखिया है। (२) इस की आज्ञा द्वारा बृहस्पति युद्ध के लिये प्रयाण करे, (३) सैनिक विजिगीषु होने चाहिये, (४) सेना के मुखभाग में, मारने में सिद्ध, सैनिक होने चाहिये, (५) इन सब के आगे-आगे सोम अर्थात् सेना का प्रेरक, सेनानायक चले, जो कि शत्रु सेना की स्थिति को ठीक तरह देख सके। सोम सहायक है, बृहस्पति-का। मन्त्र ६-८ तक बृहस्पति द्वारा मानुष बृहस्पति का वर्णन हुआ है। मन्त्र ९ से बृहस्पति द्वारा परमेश्वर का वर्णन अभिप्रेत है। परमेश्वर "बृहत्" ब्रह्माण्ड का पति है, अतः बृहस्पति है। बृहस्पतिः=बृहतः [ब्रह्माण्डस्य] पतिः। इसी दृष्टि से सूर्य, चन्द्रमा आदि की, अन्नोत्पादन में बृहस्पति के सहायक रूप में वर्णित किया है (मन्त्र १० आदि)। परमेश्वर, जैसे समग्र ब्रह्माण्ड का उत्पादक है वैसे वह तेजः, आपः, और "अन्न" का भी उत्पादक है (छान्दोग्य उप० अध्याय ६, खण्ड २)।