अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 14
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुब्गर्भा जगती
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
यमब॑ध्ना॒द्बृह॒स्पति॒र्वाता॑य म॒णिमा॒शवे॑। तमापो॒ बिभ्र॑तीर्म॒णिं सदा॑ धाव॒न्त्यक्षि॑ताः। स आ॑भ्यो॒ऽमृत॒मिद्दु॑हे॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्व॒स्तेन॒ त्वं द्वि॑ष॒तो ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । अब॑ध्नात् । बृह॒स्पति॑: । वाता॑य । म॒णिम् । आ॒शवे॑ । तम् । आप॑: । बिभ्र॑ती: । म॒णिम् । सदा॑ । धा॒व॒न्ति॒ । अक्षि॑ता: । स: । आ॒भ्य॒: । अ॒मृत॑म् । इत् । दु॒हे॒ । भूय॑:ऽभूय:। श्व:ऽश्व॑: । तेन॑ । त्वम् । द्वि॒ष॒त: । ज॒हि॒ ॥६.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
यमबध्नाद्बृहस्पतिर्वाताय मणिमाशवे। तमापो बिभ्रतीर्मणिं सदा धावन्त्यक्षिताः। स आभ्योऽमृतमिद्दुहे भूयोभूयः श्वःश्वस्तेन त्वं द्विषतो जहि ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । अबध्नात् । बृहस्पति: । वाताय । मणिम् । आशवे । तम् । आप: । बिभ्रती: । मणिम् । सदा । धावन्ति । अक्षिता: । स: । आभ्य: । अमृतम् । इत् । दुहे । भूय:ऽभूय:। श्व:ऽश्व: । तेन । त्वम् । द्विषत: । जहि ॥६.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 14
भाषार्थ -
(बृहस्पतिः) बृहत् ब्रह्माण्ड के पति परमेश्वर ने (आशवे, वाताय) शीघ्रगतिवाली वायु के निर्माण के लिये, (यम्, मणिम्) जिस कामना, रूपी-मणी को (अबध्नात्) बान्धा, (तम् मणिम्) उस कामनारूपी मणि को (आपः) जल भी (बिभ्रतीः) मानो धारण करते हुए और (अक्षिताः) न क्षीण होते हुए (सदा) सदा (धावन्ति) गति करते हैं, दौड़ से रहे हैं।(सः) उस बृहस्पति ने (आभ्यः) इन जलों के लिये या इन जलों से (अमृतम् इत्) अमृतत्व को (दुहे) दोहा, (भूयोभूयः) बार-बार या अधिकाधिक रूप में (श्वः श्वः) आए दिन-प्रतिदिन, (तेन) उस जलतत्त्व या अमृतत्व द्वारा हे बृहस्पति परमेश्वर ! (त्वम्) तू (द्विषतः) हमारे द्वेषी-शत्रुओं का (जहि) हनन कर।
टिप्पणी -
[इन मन्त्रों में वायु के निर्माण का बार-बार वर्णन आता है। कारण यह है कि वैदिक वर्णनों में परमेश्वर द्वारा आकाश, आकाश से वायु, और वायु से अग्नि, आपः आदि तत्त्वों की उत्पत्ति पूर्वक, सृष्टि की रचना हुई है (तैत्तिरीय उपनिषद्)।आपः ने भी मानो पृथिवी, ओषधि, अन्न और प्राणियों के उत्पादन रूपी कामना का व्रत धारण किया, जैसे कि बृहस्पति ने वात के उत्पादन में कामनारूपी व्रत का धारण किया। परमेश्वर ने (आभ्यः) इन "जलों के लिये" अमृतत्व को दोहा। तभी मानों जलकी "सदा" गति कर रहे हैं, विना क्षीण हुए। नदियों से समुद्र की ओर, और समुद्र से अन्तरिक्ष की ओर, तथा अन्तरिक्ष से वर्षा द्वारा पुनः नदियों की ओर गति कर रहे हैं। अतः मानो जल अमृत हैं। या "आभ्यः=इन जलों से" परमेश्वर ने हमारे लिये अमृतत्व दोहा। जलचिकित्सा द्वारा हमारी आयु बढ़ती, हम स्वस्थ और नीरोग होकर पूर्ण आयु भोग सकते हैं। यह ही मन्त्रोक्त "अमृतम्" का अभिप्राय है। आपः अमृत हैं, इसीलिए आपः को "अमृत" भी कहते हैं। यथा “अमृतम् उदकनाम" (निघं० १।१२)। जलों में भैषज्यगुण है जिन के सेवन से मनुष्य भी अमृत हो जाते हैं, पूर्ण आयु से पूर्व मरते नहीं। यथा “अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजम्" (अथर्व० १।४।४), अर्थात् जलों में अमृत है, जलों में भेषज है। "अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तः विश्वानि भेषजा” (१।६।२), अर्थात् जलों में सब भेषजों का निवास है। "आपः पृणोत भेषजं वरुथं तन्वे मम" (अथर्व० १।६।३), अर्थात् हे जलो! तुम मेरी तनु के लिये रोगनिवारक औषध प्रदान करो; इत्यादि]।