अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 31
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
उत्त॑रं द्विष॒तो माम॒यं म॒णिः कृ॑णोतु देव॒जाः। यस्य॑ लो॒का इ॒मे त्रयः॒ पयो॑ दु॒ग्धमु॒पास॑ते। स मा॒यमधि॑ रोहतु म॒णिः श्रैष्ठ्या॑य मूर्ध॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठउत्ऽत॑रम् । द्वि॒ष॒त: । माम् । अ॒यम् । म॒णि: । कृ॒णो॒तु॒ । दे॒व॒ऽजा: । यस्य॑ । लो॒का: । इ॒मे । त्रय॑: । पय॑: । दु॒ग्धम् । उ॒प॒ऽआस॑ते । स: । मा॒ । अ॒यम् । अधि॑ । रो॒ह॒तु॒ । म॒णि: । श्रैष्ठ्या॑य । मू॒र्ध॒त: ॥६.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तरं द्विषतो मामयं मणिः कृणोतु देवजाः। यस्य लोका इमे त्रयः पयो दुग्धमुपासते। स मायमधि रोहतु मणिः श्रैष्ठ्याय मूर्धतः ॥
स्वर रहित पद पाठउत्ऽतरम् । द्विषत: । माम् । अयम् । मणि: । कृणोतु । देवऽजा: । यस्य । लोका: । इमे । त्रय: । पय: । दुग्धम् । उपऽआसते । स: । मा । अयम् । अधि । रोहतु । मणि: । श्रैष्ठ्याय । मूर्धत: ॥६.३१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 31
भाषार्थ -
(देवजाः) देवों द्वारा प्रकटीकृत (अयम्, मणिः) यह परमेश्वररूप मणि (माम्) मुझ को (द्विषतः) द्वेषियों की अपेक्षया (उत्तरम्) अधिक उत्कृष्ट (कृणोतु) कर दें। (यस्य) जिस परमेश्वर के (पयः दुग्धम्) जल और दूध का, या दोहे दूध आदि का (इमे त्रयः लोकाः) ये तीनों लोक (उपासते) सेवन करते हैं। (सः अयम्) वह यह परमेश्वर-मणि (मा) मेरे (मूर्धत) सिर पर (अधि रोहतु) आरोहण करे, (श्रैष्ठ्याय) मेरी श्रेष्ठता के लिये, ताकि मैं श्रेष्ठ बन जाऊँ।
टिप्पणी -
[देवजाः (मन्त्र २९); देवकोटि के सद-गुरुओं की कृपा द्वारा परमेश्वर-देव प्रकट होता है। परमेश्वर प्रकट होकर व्यक्ति को, काम, क्रोध आदि द्विष्ट-कृत्यों पर विजयार्थ, उत्कृष्ट शक्ति प्रदान करता है। परमेश्वर द्वारा उत्पादित [दोहे दूध] आदि का सेवन तीनों लोकों के निवासी करते हैं। व्यक्ति चाहता है कि परमेश्वर-मणि मेरे सिर पर आरोहण करे। मणि आदि आभूषण सिर की शोभा को बढ़ाते हैं। सिर से ही सब विचार उठ कर नाना कर्म कराते हैं। परमेश्वर जब सिर पर आरोहण करता है तो विचार और कर्म सात्त्विक हो जाते हैं, और व्यक्ति श्रेष्ठ बन जाता है। मूर्धतः= सप्तम्यां तसिः]।