अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
सूक्त - अथर्वा
देवता - रुद्रः
छन्दः - पुरोकृतिस्त्रिपदा विराट्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - रुद्र सूक्त
तव॒ चत॑स्रः प्र॒दिश॒स्तव॒ द्यौस्तव॑ पृथि॒वी तवे॒दमु॑ग्रो॒र्वन्तरि॑क्षम्। तवे॒दं सर्व॑मात्म॒न्वद्यत्प्रा॒णत्पृ॑थि॒वीमनु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । चत॑स्र: । प्र॒ऽदिश॑: । तव॑ । द्यौ: । पृ॒थि॒वी । तव॑ । इ॒दम् । उ॒ग्र॒ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । तव॑ । इ॒दम् । सर्व॑म् । आ॒त्म॒न्ऽवत् । यत् । प्रा॒णत् । पृ॒थि॒वीम् । अनु॑ ॥२.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
तव चतस्रः प्रदिशस्तव द्यौस्तव पृथिवी तवेदमुग्रोर्वन्तरिक्षम्। तवेदं सर्वमात्मन्वद्यत्प्राणत्पृथिवीमनु ॥
स्वर रहित पद पाठतव । चतस्र: । प्रऽदिश: । तव । द्यौ: । पृथिवी । तव । इदम् । उग्र । उरु । अन्तरिक्षम् । तव । इदम् । सर्वम् । आत्मन्ऽवत् । यत् । प्राणत् । पृथिवीम् । अनु ॥२.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(उग्र) हे उग्र१ अर्थात् तेजस्विन् ! (चतस्रः प्रदिशः) चारों फैली हुई दिशाएँ (तव) तेरी हैं, (द्यौः) द्युलोक (तव) तेरा है, (पृथिवी तव) पृथिवी तेरी है, (इदम्, उरु, अन्तरिक्षम्, तव) यह विस्तृत अन्तरिक्ष तेरा है, अर्थात् इन सब का तू स्वामी है। (इदम्, सर्वम्, आत्मन्वत्) यह सब जगत् तेरी सत्ता के कारण सात्मक हो रहा है, और जो (पृथिवीम्, अनु) पृथिवी पर रहने वाला प्राणी (प्राणत्) प्राणव्यापार कर रहा है वह भी (तव) तेरा है।
टिप्पणी -
[यह सब जोकि दृश्यमान और अदृष्ट जगत् है, उस में तु आत्मरूप में विद्यमान है, इसलिये वह सात्मक हुआ-हुआ है]। [१. नियमों के पालन कराने में उग्ररूप। परमेश्वर ने जो नियम संसार चालन के लिये, तथा हमारे जीवनों के लिये, निश्चित किये हुए हैं, उन के विपरीत चलने पर परमेश्वर हमें दण्डित करता है, अतः वह उग्र है।]