अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
मुखा॑य ते पशुपते॒ यानि॒ चक्षूं॑षि ते भव। त्व॒चे रू॒पाय॑ सं॒दृशे॑ प्रती॒चीना॑य ते॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमुखा॑य । ते॒ । प॒शु॒ऽप॒ते॒ । यानि॑ । चक्षूं॑षि । ते॒ । भ॒व॒ । त्व॒चे । रू॒पाय॑ । स॒म्ऽदृशे॑ । प्र॒ती॒चीना॑य । ते॒ । नम॑: ॥२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
मुखाय ते पशुपते यानि चक्षूंषि ते भव। त्वचे रूपाय संदृशे प्रतीचीनाय ते नमः ॥
स्वर रहित पद पाठमुखाय । ते । पशुऽपते । यानि । चक्षूंषि । ते । भव । त्वचे । रूपाय । सम्ऽदृशे । प्रतीचीनाय । ते । नम: ॥२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(पशुपते, भव) हे पशुओं के अधिपति! हे सृष्ट्युत्पादक ! (मुखाय) मुख के लिये तुझे (नमः) नमस्कार हो, (यानि चक्षूंषि) जो चक्षुएँ हैं तदर्थ (ते) तुझे नमस्कार हो। (त्वचे) त्वचा के लिये, (रूपाय) रूप के लिये, (संदृशे) सम्यक् दर्शन के लिये (प्रतीचीनाय) तेरे प्रत्यक्स्वरूप के लिये (ते नमः) तुझे नमस्कार हो।।
टिप्पणी -
[के लिये = तेरी इन वस्तुओं के परिज्ञान के निमित्त। "मुखाय" आदि चतुर्थ्यन्तपदों में "ज्ञातुम्" पद का सम्बन्ध अभीष्ट प्रतीत होता है। यथा “पुष्पेभ्यो गच्छति" में "पुष्पाणि आहर्तुंगच्छति" इस अर्थ के निमित्त तुमन्नन्त "आहर्तुम्" पद का सम्बन्ध होता है। इस के लिये देखो "क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः" (अष्टा० २।३।१४)। तथा उदाहरणार्थ “फलेभ्यो याति" फलान्याहर्तुं यातीत्यर्थः। तथा "नमस्कुर्मो नृसिंहाय", नृसिंमहनुकूलयितुमित्यर्थः। एवं स्वयम्मुवे नमस्कृत्येत्यादावपि" (व्याकरण सिद्धान्त कौमुदी, भट्टोजी दीक्षित)। मुखादि के स्वरूपों के परिज्ञान के लिये, परमेश्वर की कृपा के निमित्त परमेश्वर को नमस्कार किये गए हैं। मुखादि के स्वरूप निम्न लिखित हैं: - "मुखायं" = "यस्य ब्रह्म मुखमाहुः" (अथर्व० १०।७।१९), जिस स्कम्भ का मुख है ब्रह्म अर्थात् वेद या ब्रह्मवेद, अथर्ववेद। "चक्षुंषि" = चक्षुरङ्गिरसो भवन्" (अथर्व० १०।७।१८, ३४) जिस की चक्षुएं हैं सूर्य की रश्मियां तथा सूर्य और चान्द (अथर्व० १०।७।३३)। “त्वचे"= त्वच संवरणे। समग्र जगत् की त्वक् परमेश्वर, जिसने समग्र जगत् को निज व्याप्त स्वरूप से घेरा हुआ है, जैसे कि अस्मदादि के शरीरों को त्वक् ने घेरा हुआ है, तथा वृक्षादि को उन की त्वचाएं घेरती हैं। त्वचाएं शरीर की रक्षार्थ होती हैं। परमेश्वर जगत् त्वचा न बन कर जगत् को सुरक्षित कर रहा है। रूपाय= रुपयतीति रूपम्। परमेश्वर जगत् को रूप प्रदान करता है, अतः वह “रूप” है तथा “नक्षत्राणि रूपम्" (यजु० ३१।२२) अर्थात् नक्षत्र परमेश्वर के रूप हैं। "संदृशे" = परमेश्वर के सम्यक्-दर्शन के निमित्त तथा “प्रतीचीनाय" उसके प्रत्यगात्म-स्वरूप के परिज्ञान के लिए परमेश्वर को नमस्कार है।]