अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 18
श्या॒वाश्वं॑ कृ॒ष्णमसि॑तं मृ॒णन्तं॑ भी॒मं रथं॑ के॒शिनः॑ पा॒दय॑न्तम्। पूर्वे॒ प्रती॑मो॒ नमो॑ अस्त्वस्मै ॥
स्वर सहित पद पाठश्या॒वऽअ॑श्वम् । कृ॒ष्णम् । असि॑तम् । मृ॒णन्त॑म् । भी॒मम् । रथ॑म् । के॒शिन॑: । पा॒दय॑न्तम् । पूर्वे॑ । प्रति॑ । इ॒म॒: । नम॑: । अ॒स्तु॒ । अ॒स्मै॒ ॥२.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
श्यावाश्वं कृष्णमसितं मृणन्तं भीमं रथं केशिनः पादयन्तम्। पूर्वे प्रतीमो नमो अस्त्वस्मै ॥
स्वर रहित पद पाठश्यावऽअश्वम् । कृष्णम् । असितम् । मृणन्तम् । भीमम् । रथम् । केशिन: । पादयन्तम् । पूर्वे । प्रति । इम: । नम: । अस्तु । अस्मै ॥२.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 18
भाषार्थ -
(श्यावाश्वम्) सदागति वाले अश्वों अर्थात् रश्मियों, या श्यामवर्णों अश्वों अर्थात् रश्मियों से युक्त, (कृष्णम्) काले या आकर्षक रूप वाले, या ग्रह आदि का आकर्षण करने वाले, (असितम्) बन्धन से रहित, (मृणन्तम्) हिंसा करने वाले, (भीमम्) भयप्रद (केशिनः रथम्) किरणों वाले सूर्य के रथ को (पादयन्तम्) नीचे गिराने वाले रुद्र को (पूर्वे) प्रथम भावी हम उपासक, या पूर्व प्रदेश में [प्रातर्ध्यान में] (प्रतीमः) जान लेते हैं, साक्षात् करते हैं, (अस्मै) इस के प्रति (नमः अस्तु) हमारा नमस्कार हो।
टिप्पणी -
[मन्त्र में "केशिनः रथम्" में विकल्प में षष्ठी विभक्ति है। क्योंकि केशी और रथ एक ही वस्तु हैं। केशी का अर्थ है रश्मियों वाला सूर्य; यथा "केशो केशा रश्मयः तद्वान्" (निरुक्त १२।३।२५)। रथ अर्थात् सूर्य पिण्ड और रश्मियों वाला सूर्य भिन्न-भिन्न नहीं हैं। "शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशुन्यो विकल्पः" (योग १।८)। यथा पुरुषस्थ चैतन्यम्। पुरुष अर्थात् जीवात्मा तक परमात्मा "चित्" हैं, चैतन्यमात्र हैं, तब भी "पुरुषस्य चैतन्यम्" यह प्रयोग होता है। इस में भी विकल्प में षष्ठी है। श्यावाश्वम् = श्याव पद "श्यैङ्” गतौ का रूप है। यौगिक दृष्टि में श्याव१ का अर्थ है गतिवाला। सूर्य के अश्व अर्थात् रश्मियां सदागति में रहती हैं इन रश्मियों से युक्त सूर्य है। अथवा "श्याव" शब्द, "काले-नीले रक्त रंगों वाली" सौर-रश्मियों का बोधक हैं। सूर्य अभी उदय न हुआ तथा हो, उस से पूर्व काले अथवा नीले नभस पर जब सूर्य की रश्मियां उत्क्षिप्त होती हैं तब इस मिश्रितवर्ण को श्याव कहा है। यह समय उपासना का है। कृष्णम्= सूर्य में काले धब्बे हैं, अतः सूर्य कृष्ण है। उदीयमान होते यह आकर्षकरूप वाला होता है, तथा ग्रह आदि का आकर्षण करता है, इसलिये भी यह कृष्ण है।असितम्= अ + षिञ् बन्धने + क्त। सूर्य सदा विचरता है, दिन में भी और रात में भी। जो बद्ध हो वह स्वतन्त्रतापूर्वक सदा विचर नहीं सकता। मृणन्तम्= अतिवर्षा, अतिगर्मी आदि के द्वारा यह संहार भी करता रहता है। पादयन्तम्= केशी-सूर्य के रथ अर्थात् पिण्ड को रुद्र, सायंकाल में, पश्चिम में पटक देता है, अतः सूर्य दिखाई नहीं देता। पूर्वे= प्रथमा के बहुवचन तथा सप्तमी के एक वचन में "पूर्वे" रूप प्रयुक्त होता है। जो उपासक पूर्व-पूर्व काल में परमेश्वर का ध्यान करते हैं वे प्रथम भावी हो कर प्रथम दर्शन परमात्मा का करते हैं, यथा "पूर्वः पूर्वः यजमानः वनीयाम्" (ऋ० ५।७७।२), अर्थात् पूर्व-पूर्व काल में ध्यान यज्ञ में भजन करने वाला अपेक्षया श्रेष्ठ है। सप्तम्येकवचन में "पूर्वे" का अर्थ है पूर्व प्रदेश में। अर्थात् पूर्व की ओर मुख कर ध्यान करने वाला उपासक परमेश्वर का साक्षात् करता है। साक्षात्कार होने पर परमेश्वर को नमस्कार करने का विधान मन्त्र में हुआ है। जो दीखता नहीं उसे नमस्कार कैसा ? पूज्य व्यक्ति दृष्टिगोचर न हो तो उसे नमस्कार कैसा ?] [१. श्यैङ् गतौ (भ्वादि)।]