अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 30
रु॒द्रस्यै॑लबका॒रेभ्यो॑ऽसंसूक्तगि॒लेभ्यः॑। इ॒दं म॒हास्ये॑भ्यः॒ श्वभ्यो॑ अकरं॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठरु॒द्रस्य॑ । ऐ॒ल॒ब॒ऽका॒रेभ्य॑: । अ॒सं॒सू॒क्त॒ऽगि॒लेभ्य॑: । इ॒दम् । म॒हाऽआ॑स्येभ्य: । श्वऽभ्य॑: । अ॒क॒र॒म् । नम॑: ॥२.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
रुद्रस्यैलबकारेभ्योऽसंसूक्तगिलेभ्यः। इदं महास्येभ्यः श्वभ्यो अकरं नमः ॥
स्वर रहित पद पाठरुद्रस्य । ऐलबऽकारेभ्य: । असंसूक्तऽगिलेभ्य: । इदम् । महाऽआस्येभ्य: । श्वऽभ्य: । अकरम् । नम: ॥२.३०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 30
भाषार्थ -
(ऐलवकारेभ्यः) विलासी-कर्मों के करने वालों के लिये, (असंसूक्तगिलेभ्यः) न सम्यक् विधि से और न उत्तम वचनों का भाषण करने वालों के लिये, तथा (महास्येभ्यः श्वभ्यः) महा-खाऊ कुत्तों के लिये, (रुद्रस्य) पापियों को रुलाने वाले परमेश्वर का (नमः) बज्रपात हो, ऐसों के लिये (अकरम्, नमः) मैंने भी दूरतः नमस्कार किया है, यथा "दूरतो दुर्जना वन्द्याः”।
टिप्पणी -
[ऐलवकारेभ्यः =एला विलासे+स्वार्थे अण्+मतुबर्थक "वः" + कारेभ्यः, अर्थात् जो विलासी कर्मों के करने वाले हैं उन के लिये। असंसूक्त गिलेभ्यः = अ +सम् (सम्यक् विधि से) + सु (उत्तम) उक्त (वचन) + गिलेभ्यः (गृ ज्ञब्दे), अर्थात् जो न सम्यक् विधि से और न उत्तम वचनों का भाषण करते हैं उन के लिये। महास्येभ्यः श्वभ्यः =श्वभ्यः द्वारा उन व्यक्तियों का निर्देश किया है, जोकि कुपथ द्वारा, या लूट-मार कर, दूसरों की सम्पत्ति का अपहरण कर, भोग करते हैं। इन्हें “महास्येभ्यः" द्वारा महामुखी या महाखाऊ कुत्ते कहा है। ये व्यक्ति पापी हैं, इसलिये ये रुद्र के शिकार हैं। परमेश्वर से प्रार्थना की है कि वह इन पर निज वज्र प्रहार करे, "नमः वज्रनाम (निघं० २।२०); तथा प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति भी इन्हें दूरतः नमस्कार करदे, इन का सामाजिक वायकाट करे, क्योंकि ऐसे व्यक्ति समाजद्रोही हैं। सम्यक्-विधि का अभिप्राय है कि सुवचनों का भाषण भी मीठे और प्रेम संसिक्त विधि से करना चाहिये, जैसे कि मनु ने कहा है कि "न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्", अर्थात् सत्यवचनों को भी अप्रियविधि से न कहे, उन्हें भी प्रिय वचनों में कहे]।