अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
अङ्गे॑भ्यस्त उ॒दरा॑य जि॒ह्वाया॑ आ॒स्याय ते। द॒द्भ्यो ग॒न्धाय॑ ते॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअङ्गे॑भ्य: । ते॒ । उ॒दरा॑य । जि॒ह्वायै॑ । आ॒स्या᳡य । ते॒ । द॒त्ऽभ्य: । ग॒न्धाय॑ । ते॒ । नम॑: ॥२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अङ्गेभ्यस्त उदराय जिह्वाया आस्याय ते। दद्भ्यो गन्धाय ते नमः ॥
स्वर रहित पद पाठअङ्गेभ्य: । ते । उदराय । जिह्वायै । आस्याय । ते । दत्ऽभ्य: । गन्धाय । ते । नम: ॥२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(अङ्गेभ्यः) अङ्गों के लिये, (उदराय) उदर के लिये, (जिह्वायै) जिह्वा के लिये, (आस्याय) आस्य के लिये (ते) तुझे नमस्कार हो। (ददभ्यः) दान्तों के लिये, (गन्धाय) गन्ध के लिये (ते नमः) तुझे नमस्कार हो ॥६॥
टिप्पणी -
[“अङ्गेभ्यः" = “अङ्गानि यस्य यातवः" (अथर्व० १०।७।१८), यातवः अर्थात् गतिशील सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र तथा तारागण जिस विराट्-शरीर के अङ्ग हैं। तथा "एकं तदङ्गं स्कम्भस्यासदाहुः परो जनाः" (अथर्व० १०।७।२५), असद् अर्थात् अव्याकृत प्रकृति को पहुंचे हुए जन स्कम्भ का अंग कहते हैं। प्रकृति, सत्त्व-रजस्-तथा-तमस् स्वरूपा है। त्रिविधा की दृष्टि से प्रकृति को अङ्गानि भी कह सकते हैं। अंगों के सम्बन्ध में देखो, (अथर्व० १०।७।२६,२७)। “उदराय" = "यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्" (अथर्व० १०।७।३२) में अन्तरिक्ष को स्कम्भ का उदर कहा है। "जिह्वायै = "जिह्वां मधुकशामुत" (अथर्व० १०।७।१९) में मधुकशा अर्थात् मधुर वेदवाणी को परमेश्वर की जिह्वा कहा है। कशावाङ्नाम (निघं० १।११) वाणी को कशा इस लिये कहते हैं कि यह अर्थ को प्रकाशित करती है। तथा जिह्वा वाङ्नाम (निघं० १।११) = "आस्याय" = "अग्निं यश्चक्र आस्यम् (अथर्व० १०।७।३३), स्कम्भ का आस्य है अग्नि। जैसे अग्नि हवि को खाती है वैसे आस्य अन्न को खाता है। "ददभ्यः, गन्धाय"= इन पदों द्वारा परमेश्वर की संहारक शक्तियों का वर्णन हुआ है। "ददभ्यः" वे प्राणी हैं, जोकि अपने दान्तों द्वारा प्रजा का संहार करते हैं, जैसेकि मच्छर, सांप, सिंह आदि हिंस्र प्राणी। ददभ्यः पद दान्त वाले हिंस्र प्राणियों का उपलक्षक है। गन्धाय पद भी पदमेश्वर की संहारक शक्ति का सूचक है। गन्धाय पद “गन्ध अर्दने”, अर्थात् अर्दनार्थक "गन्ध" धातु से व्युत्पन्न है। अर्दन का अर्थ है हिंसन। यथा “अर्द हिंसायाम्" (चुरादि)। दन्तुल हिंसक प्राणियों के अतिरिक्त, अदन्तुल हिंसक संख्या में अत्यधिक हैं। ये हैं रोगकीटाणु। ये रोग कीटाणु प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में प्रजा का संहार करते रहते हैं। विशेषध्येय= इन दो (५,६) मन्त्रों की व्याख्या में यह निर्देश ध्यान में रखना चाहिये कि मन्त्रों में (वे) पद परमेश्वर के अङ्गों का वर्णन नहीं करते, जिन द्वारा कि परमेश्वर को शरीरधारी मानने का भ्रम हो सके, और न इन अङ्गों के लिये नमस्कार का ही वर्णन हुआ है, अपितु इन के स्वरूपों के परिज्ञान के लिये परमेश्वर की कृपा के निमित्त परमेश्वर के प्रति नमस्कारों का वर्णन हुआ है। "ते" पद चतुर्थी विभक्ति का है, षष्ठी का नहीं]।