अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
भ॒वो दि॒वो भ॒व ई॑शे पृथि॒व्या भ॒व आ प॑प्र उ॒र्वन्तरि॑क्षम्। तस्मै॒ नमो॑ यत॒मस्यां॑ दि॒शी॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठभ॒व: । दि॒व: । भ॒व: । ई॒शे॒ । पृ॒थि॒व्या: । भ॒व: । आ । प॒प्रे॒ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । तस्मै॑ । नम॑: । य॒त॒मस्या॑म् । दि॒शि । इ॒त: ॥२.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
भवो दिवो भव ईशे पृथिव्या भव आ पप्र उर्वन्तरिक्षम्। तस्मै नमो यतमस्यां दिशीतः ॥
स्वर रहित पद पाठभव: । दिव: । भव: । ईशे । पृथिव्या: । भव: । आ । पप्रे । उरु । अन्तरिक्षम् । तस्मै । नम: । यतमस्याम् । दिशि । इत: ॥२.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
भाषार्थ -
(भवः) सृष्ट्युत्पादक परमेश्वर (दिवः) द्युलोक का (ईशे) अधीश्वर है, (भवः) सृष्ट्युत्पादक परमेश्वर (पृथिव्याः) पृथिवी का अधीश्वर है, (भवः) सृष्ट्युत्पादक परमेश्वर ने (उरु) विस्तृत (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (आ पप्रे) निज व्याप्ति से आपूरित किया हुआ है। (यतमस्याम्) जिस किसी भी (दिशा) दिशा में वह है, (इतः) यहां से (तस्मै) उसे (नमः) नमस्कार हो।
टिप्पणी -
[परमेश्वर तीनों लोकों में और सव दिशाओं में व्याप्त है। जिस किसी दिशा की ओर भी तुम मुख करके उसे नमस्कार कर सकते हो, वह तो निज व्याप्ति द्वारा सभी दिशाओं में विद्यमान है ही। आ पप्रे (लिङ् लकार)]।