अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 11
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - स्वराट् गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स यत्प॒शूननु॒व्यच॑लद्रु॒द्रो भू॒त्वानु॒व्यचल॒दोष॑धीरन्ना॒दीः कृ॒त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठस: । यत् । प॒शून् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । रु॒द्र: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । ओष॑धी: । अ॒न्न॒ऽअ॒दी: । कृ॒त्वा ॥१४.११॥
स्वर रहित मन्त्र
स यत्पशूननुव्यचलद्रुद्रो भूत्वानुव्यचलदोषधीरन्नादीः कृत्वा ॥
स्वर रहित पद पाठस: । यत् । पशून् । अनु । विऽअचलत् । रुद्र: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । ओषधी: । अन्नऽअदी: । कृत्वा ॥१४.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(सः) वह प्राणाग्निहोत्री व्रात्य (यद्) जो (पशून्) पशुओं को (अनु) लक्ष्य कर के (व्यचलद्) विशेषतया चला, वह (रुद्रः भूत्वा) रुद्र होकर (अनु) तदनुसार (व्यचलद्) चला, (ओषधीः) ओषधियों को (अन्नादीः) अन्न खाने वाली (कृत्वा) करके।
टिप्पणी -
[रुद्रः= रु (शब्दे) + द्रु। रोगजन्यं दुःखमयं रवं शब्दं द्रावयति, अपगमयतीतिरुद्रः वैद्यः। इसी लिये रुद्र अर्थात् शिव को वैद्यनाथ भी कहते हैं। प्राणाग्निहोत्री व्रात्यः वैद्यरूप होकर ऐसे अन्न का सेवन करे जोकि उस के शरीरस्थ ओषधियों को स्वस्थ तथा परिपुष्ट करे। यह यह अन्न सादा होना चाहिये; जैसे कि पशु सादा घास खाते और स्वस्थ तथा पुष्ट रहते हैं। ओषधीः अन्नादीः = इस द्वारा शरीरस्थ ओषधियों को अन्नादीः, अर्थात् अन्न का भक्षण करने वाली कहा है, ताकि शरीरस्थ ओषधियां शक्ति सम्पन्न हो सकें। अथर्ववेद में ४ प्रकार की ओषधियां कही हैं- आथर्वणीः, आङ्गिरसीः, दैवीः, मनुष्यजाः। यथा "आथर्वणीराङ्गिरसीर्दैवीर्मनुष्यजा उत। ओषधयः प्र जायन्ते यदा त्वं प्राण जिन्वसि"॥ ११।४|१६।। इन ४ प्रकार की ओषधियों में आथर्वणीः और आङ्गिरसीः ओषधियां शरीरस्थ ओषधियां हैं, जिनके परिपोषणार्थ तदनुकूल अन्न का भोजन करना चाहिये। आथर्वणीः ओषधियां हैं मनोबल, या दृढ़ शिवसंकल्प, जोकि मन की स्थिरता और बल पर आधारित होते हैं। आथर्वणीः= अ + थर्वतिः चरति कर्मा। अर्थात् मन की चञ्चलता के न होते, उस की स्थिरता पर आश्रित औषधियाँ। मनोबल या दृढ़ शिवसंकल्प द्वारा रोग चिकित्सा या रोगोपचार किया जाता है। इसे WILL-POWER कहते हैं। Hypnotism तथा Suggestion,और mesmerism आथर्वणीः ओषधियां हैं। आङ्गिरसीः ओषधियां हैं पाचकाग्नि, और श्वास-प्रश्वास अर्थात् प्राणशक्ति तथा प्राणायाम। इन द्वारा भी रोगचिकित्सा या रोगोपचार होता है। पाचकाग्नि द्वारा कोष्ठबद्धता आदि की चिकित्सा होती है। प्राणशक्ति या प्राणायाम, रक्तशोधक होने से, शारीरिक रोगों का शामक तथा निवारक है। "तन्त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि।" (यजु० ३।३) द्वारा आधिदैविक दृष्टि में अङ्गिरा का अर्थ है अग्निहोत्राग्नि, और आध्यात्मिक दृष्टि में अङ्गिरा का अर्थ है प्राणाग्निहोत्र की अग्नि अर्थात् पाचकाग्नि। इसी प्रकार अङ्गिरा का अर्थ "प्राण" भी है। अङ्गिरा "अङ्गाना रसः प्राणो हि वा अङ्गाना रसस्तस्माद्यस्मात्कस्माच्चाङ्गात्प्राण उत्क्रामति तदेव तच्छुष्यतिष हि वा अङ्गाना रसः॥" (बृहदा० उप० व्रा० ३ खं० १९)। शुद्ध वायु के सेवन तथा श्वास-प्रश्वास के संयम अर्थात् प्राणायाम द्वारा, रक्त शोधन होकर रोग चिकित्सा होती है। इसी लिये श्वास-प्रश्वास को अश्विनी भी कहते हैं, जोकि शरीर में भिषक् अर्थात् वैद्य का काम करते रहते हैं, अश्विनौ देवानां१ भिषजौ" (श० ब्रा० ११।३३।७)। अश्विनौ का नाम नासत्यौ भी हैं, जिन की कि नासिका में सतत गति रहती है। नासात्यौ = नासा (नासिका) + अत्यौ (अत सातत्यगमने)। नासत्यौ के सम्बन्ध में कहा है कि ये "भुरण्यथः"२ शरीर का भरण-पोषण करते हैं, तथा "भिषज्यथः" शरीर के रोगों की चिकित्सा भी करते हैं (अथर्व० २०।१४०।१)। नासत्यौ = नासिका प्रभवौ बभूवतुरिति वा" (निरु० ६।३।१३)। नासिका प्रभवौ श्वास-प्रश्वास ही हैं, जोकि आङ्गिरसी ओषधिरूप हैं] [१. देवानाम्= इन्द्रियाणाम्। इन्द्रियों के श्वास-प्रश्वास के निग्रह अर्थात् प्राणायाम द्वारा शरीर के दोष दग्ध हो जाते हैं। "तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्” (मनु०)। २.भुरण्यथ: का अर्थ "शीघ्र गति करने वाले" भी होता है। श्वास-प्रश्वास शीघ्रता से नासिका में गति करते रहते हैं। भुरण्यति यतिकर्मा (निघं० २।१४), भुरण्युः क्षिप्रनाम (निघं० २।१५)।]