अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 19
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - भुरिक् नागी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स यद्दे॒वाननु॒व्यच॑ल॒दीशा॑नो भू॒त्वानु॒व्यचलन्म॒न्युम॑न्ना॒दं कृ॒त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठस: । यत् । दे॒वान् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । ईशा॑न: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । म॒न्युम् । अ॒न्न॒ऽअ॒दम् । कृत्वा ।१४.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
स यद्देवाननुव्यचलदीशानो भूत्वानुव्यचलन्मन्युमन्नादं कृत्वा ॥
स्वर रहित पद पाठस: । यत् । देवान् । अनु । विऽअचलत् । ईशान: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । मन्युम् । अन्नऽअदम् । कृत्वा ।१४.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 19
भाषार्थ -
(सः) वह प्राणाग्निहोत्री व्रात्य (यद्) जो (देवान्) देवों को (अनु) लक्ष्य करके (व्यचलद्) विशेषतया चला, वह (ईशानः) शासक (भूत्वा) हो कर (अनु) तदनुसार (व्यचलद्) चला, (मन्युम्) ज्ञानपूर्वक क्रोध को (अन्नादम्, कृत्वा) अन्नभोगी कर के।
टिप्पणी -
[ईशानः= इस का अर्थ है, शासक। अच्छे शासक के दो कर्तव्य होते हैं, प्रजा को दिव्य कर्मों के करने में प्रेरित करना, तथा आसुर और राक्षसकर्मों के करने से निवारित करना। देवान् = प्राणाग्निहोत्री देवपथ का अनुगमन करता है, और अपने आप को प्रेरित करता है दिव्यकर्मों के करने और अदिव्य कर्मों से छुटकारा पाने के लिए। एतदर्थ वह मन्यु का आश्रय लेता है, अदिव्यकर्मों को मन्युपूर्वक निवारित करने के लिए। मन्यु का अर्थ ज्ञानपूर्वक क्रोध (मनु ज्ञाने) है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानकर जहां क्रोध की आवश्यकता हो वहीं क्रोध करना चाहिये, ताकि जीवन समुन्नत हो सके। अज्ञानपूर्वक किया क्रोध त्याज्य है। इस मन्यु को परिपुष्ट करने की दृष्टि से प्राणाग्निहोत्री तदनुकूल अन्न ग्रहण करता है]