अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 17
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आर्ची पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स यदू॒र्ध्वांदिश॒मनु॒ व्यच॑ल॒द्बृह॒स्पति॑र्भू॒त्वानु॒व्यचलद्वषट्का॒रम॑न्ना॒दं कृ॒त्वा॥
स्वर सहित पद पाठस: । यत् । ऊ॒र्ध्वाम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । बृह॒स्पति॑: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । व॒ष॒ट्ऽका॒रम् । अ॒न्न॒ऽअ॒दम् । कृ॒त्वा ॥१४.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
स यदूर्ध्वांदिशमनु व्यचलद्बृहस्पतिर्भूत्वानुव्यचलद्वषट्कारमन्नादं कृत्वा॥
स्वर रहित पद पाठस: । यत् । ऊर्ध्वाम् । दिशम् । अनु । विऽअचलत् । बृहस्पति: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । वषट्ऽकारम् । अन्नऽअदम् । कृत्वा ॥१४.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 17
भाषार्थ -
(सः) वह प्राणाग्निहोत्री व्रात्य, (यत्) जो (उर्ध्वाम्) सांसारिक भोगों से उठी हुई, ऊंची (दिशम्) दिशा अर्थात्, निर्देश या उदेश्य को (अनु) लक्ष्य कर के (व्यचलद्) विशेषतया चला, वह (बृहस्पतिः) वेदवाणी का पति अर्थात् स्वामी (भूत्वा) हो कर, (अनु) वेदवाणी के सदुपदेशों के अनुसार (व्यचलद्) चला, (वषट्कारम्) पापविनाश कर्म को (अन्नादम्) अन्न भोगी (कृत्वा) कर के।
टिप्पणी -
[ऊर्ध्वाम् दिशम् = ऊंचा उद्देश्य। ऊर्ध्व शब्द का प्रयोग केवल दैशिक-ऊंचाई के लिये ही नहीं होता है। अपितु आध्यात्मिक ऊंचाई के लिये भी प्रयुक्त होता है। "त्रिपादू्र्ध्व उदैत् पुरुषः" (यजु ३१।४) में 'ऊर्ध्वः' शब्द की व्याख्या में महर्षि दयानन्द लिखते हैं। सब से उत्तम मुक्तिस्वरूप, संसार से पृथक्"। इसी अर्थ के अनुसार मन्त्र में "ऊर्ध्वादिशम्" की व्याख्या की गई है। बृहस्पतिः = बृहस्पति का अर्थ "बृहती वेदवाणी का पति अर्थात् पूर्ण विद्वान्” – यह अर्थ यहां संगत प्रतीत होता है। ऋग्वेद १०।७१।१-११ मन्त्रों का देवता है -ज्ञानम्। इस सूक्त में वेदवाणी और वेदज्ञान का वर्णन है। प्रथम मन्त्र में "बृहस्पते प्रथमं वाचा अग्रम्" द्वारा बृहस्पति का सम्बन्ध, वाणियों में श्रेष्ठ तथा प्रथम वेदनामधेय, अर्थात् वेदवाणी के प्रवक्तारूप में दर्शाया है। वषट् = इस शब्द का प्रयोग याज्ञिक अर्थ में नहीं किया गया। अपितु वष् हिंसार्थः + अति (शतृवत्, बाहुलकात्, उणा० २।८५), अर्थात् हिंसार्थ में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। वैदिक प्राणाग्निहोत्री पापकर्मों और उन के संस्कारों के विनाश के लिये, वैदिक सदुपदेशों को निज जीवन में चरितार्थ करता है, और इस दृष्टि से अन्न सेवन करता है। वषट् (हिंसा) + कारम् (करना, कर्म)।] [१. वषट्कार= "वषट्" शब्द याज्ञिक भावना से अन्यत्र भी प्रयुक्त होता है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रमाण है-“स रुद्रो वसुवनिर्वसुदेवे नमोवाके बषट्कारः" - (अथर्व० १३।४। पर्याय ३। मन्त्र ४) में रुद्र (परमेश्वर) के सम्बन्ध में कहा है कि "वह वसु (धन) के प्रदान में वसुदाता (वनिः= बन संभक्तौ) है, और नमस्कारोक्तियों पर वह वषट्कार है, बषट् करता है। इस सम्बन्ध में बषट् का अर्थ याज्ञिक प्रतीत नहीं होता, अपितु "पापकर्म विनाशक" अर्थ ही सम्भावित है।]