अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 21
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - प्राजापत्या त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स यत्प्र॒जा अनु॒व्यच॑लत्प्र॒जाप॑तिर्भू॒त्वानु॒व्यचलत्प्रा॒णम॑न्ना॒दं कृ॒त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठस: । यत् । प्र॒ऽजा: । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । प्र॒जाऽप॑ति: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । प्रा॒णम् । अ॒न्न॒ऽअ॒दम् । कृ॒त्वा ॥१४.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
स यत्प्रजा अनुव्यचलत्प्रजापतिर्भूत्वानुव्यचलत्प्राणमन्नादं कृत्वा ॥
स्वर रहित पद पाठस: । यत् । प्रऽजा: । अनु । विऽअचलत् । प्रजाऽपति: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । प्राणम् । अन्नऽअदम् । कृत्वा ॥१४.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 21
भाषार्थ -
(सः) वह प्राणाग्निहोत्री व्रात्य (यत्) जो (प्रजाः) उत्पापक वीर्य की शक्तियों को (अनु) लक्ष्य करके (व्यचलत्) विशेषतया चला, वह (प्रजापतिः) वीर्य का रक्षक (भूत्वा) होकर (व्यचलत्) विशेषतया चला, (प्राणम्) प्राणशक्ति को (अन्नादम्) अन्नभोजी (कृत्वा) कर के।
टिप्पणी -
[मन्त्र में 'प्रजा' पद वीर्यार्थक है। प्रजा=semen (आप्टे)। योग शक्ति के संवर्धन में ऊर्ध्वरेतस् होना आवश्यक है। "श्रद्धा वीर्य स्मृति समाधि प्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्" (योग १।२०) में वीर्य को योग संवर्धन में सहायक माना है वीर्य द्वारा प्राणशक्ति बढ़ती है, जो कि प्राणायाम तथा जीवन में सहायक होती है। प्राणाग्निहोत्री प्राणशक्ति से संवर्धन की दृष्टि से तदुपयोगी अन्न खाता है]