अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 5
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स यत्प्र॒तीचीं॒दिश॒मनु॒ व्यच॑ल॒द्वरु॑णो॒ राजा॑ भू॒त्वानु॒व्यचलद॒पोऽन्ना॒दीः कृ॒त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठस: । यत् । प्र॒तीची॑म् । दिश॑म् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । वरु॑ण: । राजा॑ । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । अ॒प: । अ॒न्न॒ऽअ॒दी: । कृ॒त्वा ॥१४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
स यत्प्रतीचींदिशमनु व्यचलद्वरुणो राजा भूत्वानुव्यचलदपोऽन्नादीः कृत्वा ॥
स्वर रहित पद पाठस: । यत् । प्रतीचीम् । दिशम् । अनु । विऽअचलत् । वरुण: । राजा । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । अप: । अन्नऽअदी: । कृत्वा ॥१४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(सः) वह प्राणाग्निहोत्री व्रात्य (यद्) जो (प्रतीचीम्) विषय प्रतीप भावना की (दिशम्) दिशा अर्थात् निर्देश या उद्देश्य को (अनु) लक्ष्य कर के (व्यचलत्) विशेषतया चला, वह (वरुणः) अध्यात्म मार्ग का वरण करने वाला, (राजा) तथा इन्द्रियों का राजा, वशयिता (भूत्वा) होकर (अनु) तदनुसार (व्यचलत्) विशेषतया चला, (अपः) शारीरिक रसों को (अन्नादीः) अन्न भोगी (कृत्वा) कर के, अर्थात् शारीरिक रसों के स्वास्थ्य तथा वृद्धि की इष्टि से।
टिप्पणी -
[अपः = शारीरिक रस-रक्त के लिये भी "आपः" शब्द का प्रयोग होता है। यथा "को अस्मिन्नापो व्यदधात्विषूवृतः पुरूवृतः सिन्धुसृत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अवाचीः पुरुषे तिरश्चीः ॥ (अथर्व० १०।२।११)। इस मन्त्र में "आपः" को तीव्राः अरुणा (किंचित् लाल) लोहिनीः (लाल), ताम्रधूम्राः (ताम्बे के धूएं जैसा नीला अर्थात् - शिराओं (veins) का नीला रक्त), तथा सिन्धु पद द्वारा हृदय का निर्देश किया है। वरुणः "वृणोतीति सतः" (निरु० १०।१।३)। मन्त्र ५ में "अपः" =द्वितीया विभक्ति, बहुवचन].