अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 9
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - पुर उष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स यद्ध्रु॒वांदिश॒मनु॒ व्यच॑ल॒द्विष्णु॑र्भू॒त्वानु॒व्यचलद्वि॒राज॑मन्ना॒दीं कृ॒त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठस: । यत् । ध्रु॒वाम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । विष्णु॑: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । वि॒ऽराज॑म् । अ॒न्न॒ऽअ॒दीम् । कृ॒त्वा ॥१४.९॥
स्वर रहित मन्त्र
स यद्ध्रुवांदिशमनु व्यचलद्विष्णुर्भूत्वानुव्यचलद्विराजमन्नादीं कृत्वा ॥
स्वर रहित पद पाठस: । यत् । ध्रुवाम् । दिशम् । अनु । विऽअचलत् । विष्णु: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । विऽराजम् । अन्नऽअदीम् । कृत्वा ॥१४.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(सः) वह प्राणाग्निहोत्री व्रात्य (ध्रुवाम्) स्थिरता की (दिशम्) दिशा अर्थात् निर्देश या उद्देश्य को (अनु) लक्ष्य कर के (व्यचलद्) विशेषतया चला, वह (विष्णुः) किरणों से व्याप्त सूर्यरूप (भूत्वा) हो कर (अनु) तदनुसार (व्यचलद्) विशेषतया चला, (विराजम्) विराट् को (अन्नादीम्) अन्न का भोजन करने वाली (कृत्वा) कर के।
टिप्पणी -
[ध्रुवाम् = ध्रुव स्थैर्ये, स्थिरता। विष्णुः१ = विष्लृ व्याप्तौ। विराजम्= विशेषेण राजते दीप्यते। अभिप्राय यह कि प्राणाग्निहोत्री निज खान-पान को अग्निहोत्र जान कर, निज जीवन को यज्ञमय बनाने में जब स्थिरता प्राप्त कर लेता है, दृढ़ निश्चय वाला हो जाता है, तब नियम से मित-तथा-पथ्य अन्न के सेवन द्वारा वह विष्णु अर्थात् सूर्य के सदृश तेजस्वी हो कर, शरीर और मुख से विराट अर्थात् विशिष्ट दीप्ति से सम्पन्न हो जाता है,और सदा "विराट्" की स्थिरता बनाएं रखने वाले अन्न का ही सेवन करता है।] [१. विष्णुः= विष्लृ व्याप्तौ= रश्मिभिः व्याप्त, सूर्यः।]