अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 24
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदासुरी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
ब्रह्म॑णान्ना॒देनान्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑णा । अ॒न्न॒ऽअ॒देन॑ । अन्न॑म् । अ॒त्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१४.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मणान्नादेनान्नमत्ति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मणा । अन्नऽअदेन । अन्नम् । अत्ति । य: । एवम् । वेद ॥१४.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 24
भाषार्थ -
(यः) जो व्यक्ति (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता और तदनुसार आचरण या जीवनचर्या करता है वह (अन्नादेन) अन्न भोगी (ब्रह्मणा) ब्रह्म की दृष्टि से (अन्नम् अत्ति) अन्न खाता है।
टिप्पणी -
[अभिप्राय यह कि वह व्यक्ति ऐसा अन्न खाता है, जिस के कि खाने से ब्रह्मदेय अन्न अर्थात् "सर्वस्वसमर्पणरूपी-अन्न" की स्थिति अक्षुण्णरूप में बनी रहे, ऐसे सात्त्विक, लघु तथा सुपाच्य अन्न का वह सेवन करता है। अथवा इस ब्राह्मी स्थिति को बनाएं रखने के लिये वह आध्यात्मिक अन्न अर्थात् प्रणवजाप, अध्यात्मस्वाध्याय, तथा ब्रह्मध्यानरूपी अन्न का सतत सेवन करता रहता है। सुक्तसार: सूक्त १४वें का अभिप्राय यह है कि प्राणाग्निहोत्री अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए तथा अपने शारीरिक अङ्गों के स्वास्थ्य तथा उन की पुष्टि के लिए; तदनुकूल ही अन्नों का ग्रहण करे। इस निमित्त लोभ तथा भोगभावना का सर्वथा परित्याग करे। जैसे कि जिस-जिस शारीरिक अङ्ग के रोग के निवारणार्थ उस-उस अङ्ग के रोग के अनुकूल औषध का चुनाव किया जाता है, वैसे ही प्राणाग्निहोत्री भी, निज आध्यात्मिक उन्नति के लिए, अपने मन आदि अङ्गों के लिए निज उद्देश्य की पूर्ति में सहायक अन्नों का चुनाव करता है। और अन्त में निज जीवन के अङ्गभूत ब्रह्म के प्रति निज ब्राह्मीस्थिति बनाएं रखने के लिये, ब्रह्मोचित अन्न समर्पित करता है। मन्त्र में साथ ही यह भी दर्शाया है कि अन्न के ग्रहण, और शारीरिक अङ्गों के स्वास्थ्य, तथा मानसिक शक्तियों का अन्तिम उद्देश्य है ब्राह्मीस्थिति को प्राप्त करना,अर्थात् व्रह्म की प्राप्ति। अतः अन्नग्रहण इसी अन्तिम उद्देश्य के निमित्त होना चाहिये।]