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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 2
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    य॒माय॒मधु॑मत्तमं जु॒होता॒ प्र च॑ तिष्ठत। इ॒दं नम॒ ऋषि॑भ्यः पूर्व॒जेभ्यः॒पूर्वे॑भ्यः पथि॒कृद्भ्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒माय॑ । मधु॑मत्ऽतमम् । जु॒होत॑ । प्र । च॒ । ति॒ष्ठ॒त॒ । इ॒दम् । नम॑: । ऋषि॑ऽभ्य: । पू॒र्व॒ऽजेभ्य॑: । पूर्वे॑भ्य: । प॒थि॒कृत्ऽभ्य॑: ॥२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमायमधुमत्तमं जुहोता प्र च तिष्ठत। इदं नम ऋषिभ्यः पूर्वजेभ्यःपूर्वेभ्यः पथिकृद्भ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यमाय । मधुमत्ऽतमम् । जुहोत । प्र । च । तिष्ठत । इदम् । नम: । ऋषिऽभ्य: । पूर्वऽजेभ्य: । पूर्वेभ्य: । पथिकृत्ऽभ्य: ॥२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (यमाय) यम [सर्वनियन्ता परमात्मा] के लिये (मधुमत्तमम्) अत्यन्त विज्ञानयुक्त कर्म (जुहोत) तुम दान करो, (च) और (प्र तिष्ठत) प्रतिष्ठा पावो (इदम्) यह (नमः)नमस्कार (पूर्वेभ्यः) पहिले [पूर्ण विद्वान्], (पथिकृद्भ्यः) मार्ग बनानेवाले (पूर्वजेभ्यः) पूर्वज (ऋषिभ्यः) ऋषियों [महाज्ञानियों] को है ॥२॥

    भावार्थ - मनुष्य विज्ञानपूर्वकउस जगदीश्वर को आत्मसमर्पण करके संसार में प्रतिष्ठा पावें और जो महर्षिवेदानुकूल ग्रन्थरचना और शिक्षा करें, उससे सुधार करके उनका उद्देश्य पूरा करें॥२॥

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