Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 35
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    ये अ॑ग्निद॒ग्धाये अन॑ग्निदग्धा॒ मध्ये॑ दि॒वः स्व॒धया॑ मा॒दय॑न्ते। त्वं तान्वे॑त्थ॒ यदि॒ तेजा॑तवेदः स्व॒धया॑ य॒ज्ञं स्वधि॑तिं जुषन्ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । अ॒ग्नि॒ऽद॒ग्धा: । ये । अ॑नग्निऽदग्धा:। मध्ये॑ । दि॒व: । स्व॒धया॑ । मा॒दय॑न्ते । त्वम् । तान् । वे॒त्थ॒ । यदि॑ । ते । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । स्व॒धया॑ । य॒ज्ञम् ।‍ स्वऽधि॑तिम् । जु॒ष॒न्ता॒म् ॥२.३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये अग्निदग्धाये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते। त्वं तान्वेत्थ यदि तेजातवेदः स्वधया यज्ञं स्वधितिं जुषन्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । अग्निऽदग्धा: । ये । अनग्निऽदग्धा:। मध्ये । दिव: । स्वधया । मादयन्ते । त्वम् । तान् । वेत्थ । यदि । ते । जातऽवेद: । स्वधया । यज्ञम् ।‍ स्वऽधितिम् । जुषन्ताम् ॥२.३५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 35

    पदार्थ -
    (ये) जो (अग्निदग्धाः)अग्नि जलानेवाले [हवन आदि करनेवाले गृहस्थ आदि] और (ये) जो (अनग्निदग्धाः) अग्निको नहीं जलानेवाले पुरुष [आहवनीय आदि भौतिक यज्ञ अग्नि छोड़ देनेवाले संन्यासी] (दिवः) ज्ञान के (मध्ये) बीच (स्वधया) आत्मधारण शक्ति से (मादयन्ते) आनन्द पाते हैं।(जातवेदः) हे पूर्ण ज्ञानी पुरुष ! (त्वम्) तू (तान्) उन को (यदि) जो (वेत्थ)जानता है, (ते) वे (स्वधया) अन्न के साथ (स्वधितिम्) स्वधारण शक्तिवाले (यज्ञम्)यज्ञ [पूजनीय व्यवहार] का (जुषन्ताम्) सेवन करें ॥३५॥

    भावार्थ - मनुष्यों को उचित हैकि हवन आदि यज्ञ करनेवाले ब्रह्मचारी, गृहस्थ लोगों को और भौतिक अग्नि के यज्ञको छोड़कर ज्ञानयज्ञ करनेवाले संन्यासी विद्वानों को यथाविधि सत्कार से बुलावेंऔर उन से श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करें ॥३५॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१५।१४, १३ और यजुर्वेद−१९।७, ६७ ॥भगवान् मनु ने इस आशय को इस प्रकार वर्णनकिया है ॥ अध्याय ६ श्लोक ३६, ३८ ॥ अधीत्य विधिवद् वेदान् पुत्रांश्चोत्पाद्यधर्मतः। इष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत् ॥१॥ प्राजापत्यांनिरूप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम्। आत्मन्यग्नीन्समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद्गृहात् ॥२॥विधिपूर्वक वेदों को पढ़कर और धर्म से सन्तानों को उत्पन्न कर के औरयथाशक्ति यज्ञों को कर के मन को मोक्ष [अर्थात् संन्यासाश्रम] में लगावे॥१॥प्रजापति परमात्मा की प्राप्ति करानेवाले, सर्वस्व दक्षिणावाले यज्ञ को कर केआत्मा में [आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणात्य] अग्नियों को समारोपित करकेब्राह्मण, वेद और ईश्वर जाननेवाला पुरुष, गृहाश्रम से संन्यास लेवे ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top