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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 60
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    धनु॒र्हस्ता॑दा॒ददा॑नो मृ॒तस्य॑ स॒ह क्ष॒त्रेण॒ वर्च॑सा॒ बले॑न। स॒मागृ॑भाय॒वसु॑ भूरि पु॒ष्टम॒र्वाङ्त्वमेह्युप॑ जीवलो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धनु॑: । हस्ता॑त् । आ॒ऽददा॑न: । मृ॒तस्य॑ । स॒ह । क्षे॒त्रेण॑ । वर्च॑सा । बले॑न । स॒म्ऽआगृ॑भाय । वसु॑ । भूरि॑ । पु॒ष्टम् । अ॒र्वाङ् । त्वम् । आ । इ॒हि॒ । उप॑ । जी॒व॒ऽलो॒कम् ॥२.६०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धनुर्हस्तादाददानो मृतस्य सह क्षत्रेण वर्चसा बलेन। समागृभायवसु भूरि पुष्टमर्वाङ्त्वमेह्युप जीवलोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धनु: । हस्तात् । आऽददान: । मृतस्य । सह । क्षेत्रेण । वर्चसा । बलेन । सम्ऽआगृभाय । वसु । भूरि । पुष्टम् । अर्वाङ् । त्वम् । आ । इहि । उप । जीवऽलोकम् ॥२.६०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 60

    पदार्थ -
    (मृतस्य) मरे हुए [मरे हुए के समान दुर्बलेन्द्रिय पुरुष] के (हस्तात्) हाथ से (धनुः) धनुष [शासनशक्ति] को (क्षत्रेण) [अपने] क्षत्रियपन, (वर्चसा) तेज और (बलेन सह) बल केसाथ (आददानः) लेता हुआ तू (भूरि) बहुत (पुष्टम्) पुष्ट [पुष्टिकारक] (वसु) धन (सभागृभाय) यथावत् संग्रह कर और (अर्वाङ्) सामने होता हुआ (त्वम्) तू (जीवलोकम्)जीवते हुए [पुरुषार्थी] मनुष्यों के समाज में (उप) आदर से (आ इहि) आ ॥६०॥

    भावार्थ - जो मनुष्य धर्म केपालने में पुरुषार्थ न करता हो, उस को अधिकार से हटाकर पुरुषार्थी पुरुष धर्म सेधन का संग्रह करके सब लोगों की वृद्धि करे ॥६०॥

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