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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 44
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - भुरिक् आर्षी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    समि॒मां मात्रां॑मिमीमहे॒ यथाप॑रं॒ न मासा॑तै। श॒ते श॒रत्सु॑ नो पु॒रा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । इ॒माम् । मात्रा॑म् । मि॒मी॒म॒हे॒ । यथा॑ । अप॑रम् । न । मासा॑तै । श॒ते । श॒रत्ऽसु॑ । नो इति॑ । पु॒रा ॥२.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिमां मात्रांमिमीमहे यथापरं न मासातै। शते शरत्सु नो पुरा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । इमाम् । मात्राम् । मिमीमहे । यथा । अपरम् । न । मासातै । शते । शरत्ऽसु । नो इति । पुरा ॥२.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 44

    पदार्थ -
    (इमाम्) इस [वेदोक्त] (मात्राम्) मात्रा [मर्यादा] को (सम्) सब प्रकार (मिमीमहे) हम नापते हैं, (यथा)क्योंकि (अपरम्) अन्य प्रकार से [उस मर्यादा को, कोई भी] (न) नहीं (मासातै) नापसकता। (शते शरत्सु) सौ वर्षों में भी (पुरा) लगातार (नो) कभी नहीं ॥४४॥

    भावार्थ - मन्त्र ३८ के समान॥४४॥

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