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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 22
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    उत्त्वा॑ वहन्तुम॒रुत॑ उदवा॒हा उ॑द॒प्रुतः॑। अ॒जेन॑ कृ॒ण्वन्तः॑ शी॒तं व॒र्षेणो॑क्षन्तु॒बालिति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । त्वा॒ । व॒ह॒न्तु॒ । म॒रुत॑: । उ॒द॒ऽवा॒हा: । उ॒द॒ऽप्रुत॑: । अ॒जेन॑ । कृ॒ण्वन्त॑: । शी॒तम् । व॒र्षेण॑ । उ॒क्ष॒न्तु॒ । बाल् । इति॑ ॥२.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्त्वा वहन्तुमरुत उदवाहा उदप्रुतः। अजेन कृण्वन्तः शीतं वर्षेणोक्षन्तुबालिति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । त्वा । वहन्तु । मरुत: । उदऽवाहा: । उदऽप्रुत: । अजेन । कृण्वन्त: । शीतम् । वर्षेण । उक्षन्तु । बाल् । इति ॥२.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 22

    पदार्थ -
    [हे मनुष्य !] (उदवाहाः) जल पहुँचानेवाले, (उदप्रुतः) जल में चलनेवाले (मरुतः) पवनरूपविद्वान् लोग (त्वा) तुझे (उत् वहन्तु) ऊँचा पहुँचावें। और (अजेन) अजन्मेपरमात्मा के साथ (वर्षेण) वृष्टि से (शीतम्) शीतलता (कृण्वन्तः) करते हुए वे [तुझको] (उक्षन्तु) बढ़ावें−(बाल् इति) यही बल है ॥२२॥

    भावार्थ - जैसे पवन अपने झकोरोंसे मेघों को चला वृष्टि करके ताप हटाकर संसार को सुख पहुँचाता है, वैसे हीविद्वान् लोग अज्ञान मिटा शान्ति के साथ मनुष्यों को ऊँचा करके शक्तिमान् करें॥२२॥

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