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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 57
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    ए॒तत्त्वा॒ वासः॑प्रथ॒मं न्वाग॒न्नपै॒तदू॑ह॒ यदि॒हाबि॑भः पु॒रा। इ॑ष्टापू॒र्तम॑नु॒संक्रा॑मवि॒द्वान्यत्र॑ ते द॒त्तं ब॑हु॒धा विब॑न्धुषु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तत् । त्वा॒ । वास॑: । प्र॒थ॒मम् । नु । आ । अ॒ग॒न् । अप॑ । ए॒तत् । ऊ॒ह । यत् । इ॒ह । अबि॑भ: । पु॒रा । इ॒ष्टा॒पू॒र्तम् । अ॒नु॒ऽसंक्रा॑म । वि॒द्वान् । यत्र॑ । ते॒ । द॒त्तम् । ब॒हु॒ऽधा । विऽब॑न्धुषु ॥२.५७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतत्त्वा वासःप्रथमं न्वागन्नपैतदूह यदिहाबिभः पुरा। इष्टापूर्तमनुसंक्रामविद्वान्यत्र ते दत्तं बहुधा विबन्धुषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतत् । त्वा । वास: । प्रथमम् । नु । आ । अगन् । अप । एतत् । ऊह । यत् । इह । अबिभ: । पुरा । इष्टापूर्तम् । अनुऽसंक्राम । विद्वान् । यत्र । ते । दत्तम् । बहुऽधा । विऽबन्धुषु ॥२.५७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 57

    पदार्थ -
    (एतत्) यह (प्रथमम्)मुख्य (वासः) वस्त्र (त्वा) तुझे (नु) अब (आ अगन्) प्राप्त हुआ है, (एतत्) इस [वस्त्र] को (अप ऊह) छोड़ (यत्) जो (इह) यहाँ पर (पुरा) पहिले (अबिभः) तूनेधारण किया है। (विद्वान्) विद्वान् तू (इष्टापूर्तम्) यज्ञ, वेदाध्ययनऔरअन्नदान आदि पुण्य कर्म के (अनुसंक्राम) पीछे-पीछे चल, (यत्र) जिस [पुण्य कर्म]में (ते) तेरा (दत्तम्) दान (बहुधा) बहुत प्रकार से (विबन्धुषु) बिना बन्धुवालों [दीन, अनाथों] में है ॥५७॥

    भावार्थ - जैसे नवीन वस्त्र पानेपर जीर्ण वस्त्र छोड़ दिया जाता है, वैसे ही ज्ञान की प्राप्ति पर अज्ञान त्यागाजाता है। मनुष्य को चाहिये कि वेदाध्ययन आदि शुभकर्म करता हुआ निष्काम होकरपरोपकार करे ॥५७॥

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