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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 52
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    अ॒भि त्वो॑र्णोमिपृथि॒व्या मा॒तुर्वस्त्रे॑ण भ॒द्रया॑। जी॒वेषु॑ भ॒द्रं तन्मयि॑ स्व॒धा पि॒तृषु॒सा त्वयि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । त्वा॒ । ऊ॒र्णो॒मि॒ । पृ॒थि॒व्या: । मा॒तु: । वस्त्रे॑ण । भ॒द्रया॑ । जी॒वेषु॑ । भ॒द्रम् । तत् । मयि॑ । स्व॒धा । पि॒तृषु॑ । सा । त्वयि॑ ॥२.५२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि त्वोर्णोमिपृथिव्या मातुर्वस्त्रेण भद्रया। जीवेषु भद्रं तन्मयि स्वधा पितृषुसा त्वयि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । त्वा । ऊर्णोमि । पृथिव्या: । मातु: । वस्त्रेण । भद्रया । जीवेषु । भद्रम् । तत् । मयि । स्वधा । पितृषु । सा । त्वयि ॥२.५२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 52

    पदार्थ -
    [हे जीव !] (त्वा)तुझे (पृथिव्याः) जगत् के विस्तार करनेवाले परमेश्वर के [दिये] (भद्रया) कल्याणसे (अभि) सब ओर से (ऊर्णोमि) मैं ढकता हूँ, [जैसे] (मातुः) माता के (वस्त्रेण)वस्त्र से [बालक को]। (जीवेषु) जीवो में (भद्रम्) [जो] कल्याण हो, (तत्) वह (मयि) मुझ में [हो] (पितृषु) पितरों [रक्षक महात्माओं] में (स्वधा) [जो] आत्मधारण शक्ति हो, (सा) वह (त्वयि) तुझ में होवे ॥५२॥

    भावार्थ - प्रत्येक मनुष्यपरमात्मा की शरण में रहकर इस प्रकार सुख पावे, जैसे बालक माता के पास पाता है, और ऐसा प्रयत्न करे कि सब प्राणी एक दूसरे के समान सुख पावें और ज्ञानीमहात्माओं के समान आत्मावलम्बन करें ॥५२॥

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