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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 12
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - पुरस्ताद्बृहती सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    आ॒रादरा॑तिं॒ निरृ॑तिं प॒रो ग्राहिं॑ क्र॒व्यादः॑ पिशा॒चान्। रक्षो॒ यत्सर्वं॑ दुर्भू॒तं तत्तम॑ इ॒वाप॑ हन्मसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒रात् । अरा॑तिम् । नि:ऽऋ॑तिम् । प॒र: । ग्राहि॑म् । क्र॒व्य॒ऽअद॑ । पि॒शा॒चान् । रक्ष॑: । यत् । सर्व॑म् । दु॒:ऽभू॒तम् । तत् । तम॑:ऽइव । अप॑ । ह॒न्म॒सि॒ ॥२.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आरादरातिं निरृतिं परो ग्राहिं क्रव्यादः पिशाचान्। रक्षो यत्सर्वं दुर्भूतं तत्तम इवाप हन्मसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आरात् । अरातिम् । नि:ऽऋतिम् । पर: । ग्राहिम् । क्रव्यऽअद । पिशाचान् । रक्ष: । यत् । सर्वम् । दु:ऽभूतम् । तत् । तम:ऽइव । अप । हन्मसि ॥२.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 12

    पदार्थ -

    १. हम (अरातिम्) = न देने की वृत्ति को-कृपणता को (आरात् अपहन्मसि) = अपने से दूर विनष्ट करते हैं। अदान की वृत्ति हमें भोगप्रवण बनाती है। यह भोगप्रवणता मृत्यु की ओर ले जाती है। नितिम्-('यत्रतत् कुलं कलही भवति तन्नितिगृहीतमित्याचक्षते') = [को० सू० ९७११] जिस कुल में कलह होता है, उस कुल को निति ग्रहीत कहते हैं। अविद्यामय कलहप्रवृत्ति को दूर करते हैं। घर में हर समय का कलह विनाश का कारण बनता ही है। (ग्राहिम) = ग्रहणशीला लोभवृत्ति को भी अपने से (परः) [अपहन्मसि] = दूर भगाते हैं। लोभवृत्ति में मनुष्य धन को लेता और लेता ही चला जाता है। धन ही उसके जीवन का उद्देश्य बन जाता है। यही अन्ततः उसके निधन का कारण बनता है। (क्रव्याद:) = मांस को खा-जानेवाली (पिशाचान्) = पैशाचिक [राक्षसी] कामवृत्तियों को भी दूर करते हैं। ये कामवृत्तियों हमें क्षीण करके [Ema ciated] विनष्ट कर डालती हैं। २. (यत्) = जो (दुर्भूतम्) = दुष्ट स्थिति को प्राप्त होनेवाला [दुष्टत्वम् आपन्नम्] राक्षसीभाव है, (तत् सर्वम्) = उन सब दुष्ट (रक्षः)  राक्षसीभावों को (तमः इव) [अपहन्मसि] = इसप्रकार दूर करते हैं, जैसेकि प्रकाश के द्वारा अन्धकार को दूर किया जाता है।

    भावार्थ -

    'न देने की वृत्ति [अदानशीलता], परस्पर कलह [निर्गति], लोभ [ग्राही], कामवृत्तियाँ [क्रव्यादः पिशाचान] तथा सब राक्षसीभाव'-ये ही यमदूत हैं। इन्हें अपने से दूर रखना ही ठीक है।

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